________________
भूमिका अष्टाध्यायीमहाभाष्ये द्वे व्याकरणपुस्तके |
अतोऽन्यत् पुस्तकं यत्तु तत् सर्वं धूर्तचेष्टितम् । ।
अर्थ - अष्टाध्यायी और महाभाष्य दो ही व्याकरण के पुस्तक हैं। इनसे भिन्न सब पुस्तक धूर्तों की लीला है।
अष्टाध्यायी का प्रचार
अब दण्डी जी के प्रभाव से काशी में भी अष्टाध्यायी सूत्रपाठ कण्ठस्थ कराना, कौमुदी पढ़ाते हुए अनुवृत्तियां बताना आरम्भ हो गया था । वै०सि० कौमुदी की पुस्तकों
सूत्रों के पते छपने लगे थे। काशी के एक विद्वान् श्री ओरम्भट विश्वरूप ने वै०सि० कौमुदी ग्रन्थ को अष्टाध्यायी सूत्रपाठ क्रम में व्यवस्थित करके उस पर 'व्याकरण- दीपिका' नामक टीका लिखी। जगाधरी निवासी पं० हरनामदत्त ने काशी में जाकर सम्पूर्ण महाभाष्य पं० बालशास्त्री से पढ़ा और आजीवन अन्य नव्य ग्रन्थों के अतिरिक्त महाभाष्य भी अपने शिष्यों को पढ़ाते रहे। इस प्रकार दण्डी जी के घोर परिश्रम से अष्टाध्यायी और महाभाष्य का पठन-पाठन पुनः प्रचलित होगया ।
१५
शिष्यमण्डल -
मथुरा - निवास काल में स्वामी विरजानन्द से निम्नलिखित प्रसिद्ध जनों ने व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था । अंगदराम, बुद्धसेन, उदयप्रकाश, युगलकिशोर, गंगदत्त, रंगदत्त, नन्दजी, रमणलाल गोस्वामी, श्यामलाल पण्डा, वनमाली, दयानन्द सरस्वती, नवनीत कविवर, ग्वाल कवि ।
निर्वाण
दण्डी जी ने अष्टाध्यायी आदि आर्ष ग्रन्थों के पठन-पाठन तथा प्रभुभक्ति में रहकर ९० वर्ष की अवस्था में उदरशूल से दिनांक १४ सितम्बर १८६८ को अपने नश्वर शरीर का परित्याग कर दिया ।
अन्तिम समय उनके शिष्य वनमाली आदि रोने लगे । दण्डी जी ने पूछा क्यों रोते . हो ? शिष्यों ने कहा- अब हमें अष्टाध्यायी कौन पढ़ायेगा ? दण्डी जी ने अष्टाध्यायी का पुस्तक मंगवाया और उसे हाथ में लेकर कहा- “मैं इस में प्रविष्ट होता हूं, जो कुछ पूछना हो, इससे पूछना" ।
दण्डी जी के निर्वाण का समाचार जब उनके प्रिय शिष्य स्वामी दयानन्द ने शहबाजपुर में वेदप्रचार करते हुए सुना तब उन्होंने कहा था- 'आज व्याकरण का सूर्य अस्त होगया है ।
उत्तराधिकारी
दण्डी जी ने मृत्यु से दो मास पूर्व अपने पुस्तक, पात्र, वस्त्र तथा ३०० रुपये का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org