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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् १४ कौमुदी, मनोरमा और शेखर आदि को यमुना में प्रवाहित कर वस्त्रसहित स्नान करके आओ ।" इन दोनों छात्रों ने ऐसा न करके उन ग्रन्थों को अपने घर रख लिया और आकर गुरुवर से कह दिया कि हमने उन ग्रन्थों को यमुना में प्रवाहित कर दिया है । दण्डी जी को किसी छात्र से पता चल गया कि इन्होंने ऐसा नहीं किया है, अत: उन दोनों छात्रों को दण्डी जी ने अपनी पाठशाला से सदा के लिए निकाल दिया । अष्टाध्यायी की प्राप्ति दण्डी जी को पूर्वोक्त ऋग्वेदी ब्राह्मण के घर पर अष्टाध्यायी का पुस्तक है, यह तो ज्ञात हो ही चुका था । अतः दण्डी जी ने उनके घर से अष्टाध्यायी का पुस्तक खोजकर लाने के लिए अपने छात्रों को आज्ञा दी। वे आज्ञाकारी शिष्य महान् प्रयत्न करके दूसरे दिन अष्टाध्यायी का एक पुस्तक खोजकर लाये । उसमें अनेक पत्र लुप्त थे । दण्डी जी को अनेक दाक्षिणात्य ब्राह्मणों से बहुत प्रार्थना करने पर बड़े कष्ट से यह एक पुस्तक प्राप्त हुआ था । अष्टाध्यायी का पाठ अब इसी एक पुस्तक पर दण्डी जी की पाठशाला में छात्रों के पाठ चलने लगे । अन्य पुस्तकों की खोज भी चलती रही । दण्डी जी ने उस एक पुस्तक की प्रतिलिपियां पुस्तक-लेखकों को तीन-तीन, चार-चार रुपये देकर करवा ली। शनै: शनै: अष्टाध्यायी के पाठार्थी छात्रों की संख्या बढ़ने लगी। इस अष्टाध्यायी के पाठ का शोर काशी नगरी तक पहुंच गया। अब काशी के कौमुदी पाठक पण्डित भी अष्टाध्यायी के सूत्रपाठ का विचार करने लगे । अब पुस्तक - विक्रेता भी अष्टाध्यायी का पुस्तक छापने लगे । आरम्भ में इस पुस्तक का मूल्य चौदह आने था । अष्टाध्यायी के अधिक प्रचलन से यह पुस्तक दो आने में मिलने लगा । महाभाष्य का स्मरण अष्टाध्यायी की प्राप्ति के पश्चात् सम्पूर्ण महाभाष्य की खोज आरम्भ हुई। दण्डी जी ने महाभाष्य नवाह्निक (प्रथम अध्याय का प्रथम पाद) काशी में ही कण्ठस्थ कर लिया था। सम्भव है कि महाभाष्य का अंगाधिकार ( षष्ठ अध्याय का चतुर्थ पाद और सप्तम अध्याय) भी वहां कण्ठस्थ किया हो क्योंकि उन दिनों उपर्युक्त महाभाष्य-भाग ही पठन-पाठन प्रचलित था । अब सम्पूर्ण महाभाष्य का पुस्तक प्राप्त करके दण्डी जी अपने शिष्य वनमाली चौबे से रात्रि में महाभाष्य सुनकर पांच पत्र प्रतिदिन कण्ठस्थ करते थे । प्रात: काल जो भी छात्र पाठशाला में पहले आता था उसे महाभाष्य के पत्र पकड़ाकर अपना स्मरण किया हुआ पाठ सुनाया करते थे कि पाठ ठीक स्मरण हुआ कि नहीं। उस समय दण्डी जी की आयु ८१ वर्ष की थी किन्तु वे अपनी आयु इस आ शिक्षा - युग से ही गिनते थे । दण्डी जी कहा करते थे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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