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भूमिका अनुष्टुप छन्द में गणना करने की यह प्राचीन पद्धति है।
दण्डी जी को अष्टाध्यायी नामक ग्रन्थविषयक श्रद्धा अपने गुरुवर स्वा० पूर्णानन्द से दायभाग में प्राप्त हो चुकी थी। वे मथुरा की पाठशाला में अष्टाध्यायी के सूत्रक्रम की श्रेष्ठता का वर्णन अपने छात्रों से प्रायश: करते रहते थे। मथुरा-निवास के समय दण्डी जी मदनमोहन मन्दिर के अध्यक्ष गोस्वामी पुरुषोत्तमलाल के पुत्र श्री रमणलाल को एक पालकी में बैठकर पढ़ाने जाया करते थे। एक दिन दण्डी जी ने पालकी में जाते समय मार्ग में एक दशग्रन्थी दाक्षिणात्य ऋग्वेदी ब्राह्मण को अष्टाध्यायी का सूत्रपाठ करते सुना। तत्पश्चात् दण्डी जी ने ४-५ दिन उस ब्राह्मण को अपनी पाठशाला में बुलाकर अष्टाध्यायी का सूत्रपाठ सुना। उस सूत्रपाठ में यत्र-तत्र अशुद्धियां थी अत: दण्डी जी ने उससे अष्टाध्यायी का पुस्तक मंगवाकर पुन: उसका पारायण सुना। इससे दण्डी जी को अष्टाध्यायी के एक पुस्तक की जानकारी प्राप्त हो गई। अजाद्युक्ति का चमत्कार
वै०सि० कौमुदी में अजाद्यतष्टाप् (४।१।४) पर लिखा है- “अजाद्युक्तिींषो डीपश्च बाधनाय" । एक बार मथुरा के विद्वानों में 'अजाद्युक्ति' पद के विषय में शास्त्रार्थ छिड़ गया कि इस पद में कौनसा समास है। स्वा० विरजानन्द के शिष्य गंगदत्त और रंगदत्त चौबे ने षष्ठी तत्पुरुष समास बतलाया और स्वयं स्वामी विरजानन्द भी यही समास मानते थे किन्तु श्रीकृष्ण शास्त्री तथा उनके शिष्य इस पद में सप्तमी तत्पुरुष समास के पक्षपाती थे। बात काशी तक पहुंच गई। काशी की पण्डित-सभा ने विपुल दक्षिणा लेकर श्रीकृष्ण शास्त्री के पक्ष में अपना मिथ्या मत लिखकर भेज दिया। विद्या की ठेकेदार काशी की पण्डित-सभा के इस मिथ्या-निर्णय से स्वामी विरजानन्द को बड़ा धक्का लगा और दण्डी जी ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि- “अनार्ष ग्रन्थ अनर्थ का मूल हैं।" और कहा कि- “भट्टोजि मूर्ख था" । इस प्रकार दण्डी जी की पाठशाला में अनार्ष ग्रन्थों का बहिष्कार और अष्टाध्यायी आदि आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन का युग आरम्भ होगया। ____ अब दण्डी जी वै०सि० कौमुदी तथा उसके व्याख्या ग्रन्थों के प्रति केवल वीतराग ही नहीं अपितु घोर द्वेषी बन गए। वे कहने लगे कि कुत्सित (निन्दित) तीन हैं- “सूत्रक्रम तोड़कर अध्ययन-मार्ग बिगाड़नेवाले भट्टोजि आदि प्रथम कुत्सित हैं। उनके ग्रन्थ दूसरे कुत्सित हैं। उन ग्रन्थों के पढ़ने-पढ़ानेहारे तीसरे कुत्सित हैं। ये तीनों मिलकर कुत्सितत्रय अथवा कत्त्रि कहाते हैं।" कौमुदी का यमुना-अर्पण
उन दिनों दण्डी जी से दो दाक्षिणात्य भाई भट्ट गोपीनाथ और सोमनाथ व्याकरण-शास्त्र पढ़ते थे। दण्डी जी ने उनको आज्ञा दी कि- “कत्त्रिकृत इस अवकर (कूडा) को अर्थात्
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