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प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
११५ उदा०-द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नै:-कष्टं श्रित इति कष्टश्रितः । तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन । शकुलया खण्ड इति शङ्कुलखण्ड:, इत्यादि।
आर्यभाषा-अर्थ-(समासे) समास-प्रकरण में (प्रथमा-निर्दिष्टम्) प्रथमा विभक्ति से निर्देश किये हुये पद की (उपसर्जनम्) उपसर्जन संज्ञा होती है। अष्टाध्यायी द्वितीय अध्याय के प्रथम और द्वितीय पाद में समास का प्रकरण है। उन सूत्रों में जिन पदों का प्रथमा विभक्ति लगाकर उपदेश किया है, उनकी यहां उपसर्जन संज्ञा की गई है। जैसेद्वितीया श्रितातीतपतितप्राप्तापन्नै:-कष्टं श्रित इति कष्टश्रितः। तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन-शकुलया खण्ड इति शकुलखण्ड: । चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितै:यूपाय दारु इति यूपदारु। पञ्चमी भयेन सिंहाद्भयम् इति सिंहभयम् । षष्ठी-राज्ञ:पुरुष इति राजपुरुषः । सप्तमी-शौण्डै:-अक्षेषु शौण्ड इति अक्षशौण्डः ।
सिद्धि-(१) कष्टश्रितः। कष्टं श्रित इति 'कष्टश्रित:' यहां 'द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्त्यप्राप्तापन्नैः' (२।१।२४) से द्वितीया तत्पुरुष समास होता है। यहां समास विधायक सूत्र के द्वितीया' पद में प्रथमा विभक्ति लगाकर निर्देश किया गया है। उसकी यहां उपसर्जन संज्ञा की है।
उपसर्जन संज्ञा का लाभ यह है कि समास में दो पद होते हैं। उनका समास करते समय किस पद का पहले और किस पद का बाद में प्रयोग किया जाये ? जिस पद की उपसर्जन संज्ञा है, उसका उपसर्जनं पूर्वम् (२।२।३०) से पहले प्रयोग किया जाता है। जैसे- 'कष्टश्रितः' में द्वितीयान्त पद कष्टम् है, उसका समस्त पद में पहले प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझ लेवें।
(२) एकविभक्ति चापूर्वनिपाते।४४। प०वि०-एकविभक्ति ११ च अव्ययपदम्, अपूर्वनिपाते ७।१।
सo-एका विभक्तिर्यस्य तद्-एकविभक्ति (बहुव्रीहिः)। पूर्वश्चासौ निपातश्चेति-पूर्वनिपात:, न पूर्वनिपात इति अपूर्वनिपात:, तस्मिन्-अपूर्वनिपाते (कर्मधारयगर्भितनञ्तत्पुरुष:)।
अनु०-समासे, उपसर्जनम्' इत्यनुवर्तते । अन्वय:-समासे एकविभक्ति च उपसर्जमपूर्वनिपाते।
अर्थ:-समासे विधीयमाने यद् एकविभक्तिकं पदं तद् उपसर्जनसंज्ञकं भवति, पूर्वनिपातम् उपसर्जनकार्यं वयित्वा ।
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