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________________ प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः ११३ आर्यभाषा-अर्थ-(उदात्त-स्वरितपरस्य) उदात्त-परक तथा स्वरित-परक (अनुदात्तानाम्) अनुदात्त स्वर के स्थान में (सन्नतर:) अनुदात्ततर स्वर आदेश होता है। उदा०-देवा मरुतः पृश्निमातरोऽपः । सरस्वति शुतुद्रि। (१) मातरोऽपः । यहां मातरः' यह अनुदात्त पद है। अप:' ऊडिदम्पदाद्यपुपुमैद्युभ्यः' (६।१।१७१) से अन्तोदात्त है और उसका 'अ' अनुदात्त है। दोनों अनुदात्त अकारों का एकादेश 'ओ' अनुदात्त होता है। उसको उदात्त परे होने पर अनुदात्ततर आदेश होता है, अर्थात् वह अनुदात्ततर हो जाता है। (२) सरस्वति शुतुद्रि। यहां 'शुतुद्रि' यह आमन्त्रित पद पाद के आदि में है। उसको अनुदात्तं सर्वमपादादौ' (८1१1१८) से अनुदात्त नहीं होता है। इसलिये उसका प्रथम अक्षर 'शु' उदात्त है। उसके परे होने पर सरस्वति' के 'अनुदात्त' 'इ' को अनुदात्ततर आदेश होता है। विशेष-सन्नतर' यह अनुदात्त की पूर्वाचार्यों की संज्ञा है। अपृक्तसंज्ञा-- (१) अपृक्त एकाल् प्रत्ययः ।४१। प०वि०-अपृक्त: ११ एकाल् १।१ प्रत्यय: १।१। स०-एकश्चासावल् इति एकाल् (कर्मधारयतत्पुरुषः)। अन्वयः-एकाल् प्रत्ययोऽपृक्तः । अर्थ:-एकाल् प्रत्ययोऽपृक्तसंज्ञको भवति । एकशब्दोऽसहायवाची। उदा०-घृतस्पृक् । अर्धभाक् । पादभाक् । आर्यभाषा-अर्थ-(एकाल्-प्रत्यय:) एक अल रूप प्रत्यय की (अपृक्त:) अपृक्त संज्ञा होती है। यहां एक शब्द असहायवाची है। उदा०-घृतस्पृक् । घृत+स्पृश्+क्विन् । घृत+स्पृश्+वि । घृत+स्पृश्+व् । घृत+स्पृश्-० । घृतस्पृश् । घृतस्पृश्+सु । घृतस्पृक् । यहां घृत उपपदवाली 'स्पृश संस्पर्शने' (तु०प०) धातु से 'स्पृशोऽनुदके क्विन् (३।२।५८) क्विन् प्रत्यय और उसकी इस सूत्र से 'अपृक्त' संज्ञा होकर वरपृक्तस्य (६।१।६७) से उसका लोप हो जाता है। यहां क्विन् प्रत्ययस्य कुः' (८।२।६२) से कुत्व होता है। (२) अर्धभाक् । अर्ध+भज्+ण्वि । अर्ध+भज्+वि । अर्ध+भाज+व् । अर्ध+भाज्+० । अर्धभाज्+सु । अर्धभाक्। यहां अर्ध उपपदवाली 'भज सेवायाम् (भ्वा०आ०) धातु से भजो ण्विः' (३।२।६२) से वि' प्रत्यय और उसकी इस सूत्र से अपृक्त संज्ञा होकर उसका पूर्ववत् लोप हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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