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प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः आर्यभाषा-अर्थ-(सुब्रह्मण्यायाम्) सुब्रह्मण्या नामक निगद में उदात्त, अनुदात्त और स्वरित की (एकश्रुति) एकश्रुति (न) नहीं होती है, (तु) किन्तु वहां (स्वरितस्य) स्वरित को (उदात्त:) उदात्त आदेश होता है।
उदा०-सुब्रह्मण्यो३मिन्द्रागच्छ, हरिव आगच्छ, मेधातिथिर्मेष वृषणश्वस्य मेने, गौरवस्कन्दिन्नहिल्लायै जार: कौशिक ब्राह्मण, गौतम ब्रुवाण, श्व: सुत्यामागच्छ मघवन्। शतपथब्राह्मणम् ३।३।४।७।
विशेष-शतपथब्राह्मण में तृतीय काण्ड, तृतीय प्रपाठक, चतुर्थ ब्राह्मण की सतरहवीं कण्डिका को लेकर बीसवीं कण्डिका तक जो वेदमन्त्र का व्याख्यानरूप पाठ है, उसे सुब्रह्मण्या निगद कहते हैं। उसमें उदात्त, अनुदात्त और स्वरित की एकश्रुति का यहां निषेध किया है।
(१०) देवब्रह्मणोरनुदात्तः ।३८ । प०वि०-देव-ब्रह्मणो: ६।२ अनुदात्त: १।१। देवश्च ब्रह्मा च तौ देव-ब्रह्मणौ, तयो:-देवब्रह्मणोः (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-सुब्रह्मण्यायाम् एकश्रुति न स्वरितस्य अनुदात्त: । अन्वय:-सुब्रह्मण्यायां देवब्रह्मणोरेकश्रुति न स्वरितस्तु अनुदात्त:।
अर्थ:-सुब्रह्मण्यायां निगदे देवब्रह्मणो: शब्दयोरेकश्रुतिस्वरो न भवति किन्तु तत्र स्वरितस्य स्थानेऽनुदात्त: स्वरो भवति ।
उदा०-देवा ब्रह्माण आगच्छत ।
आर्यभाषा-अर्थ-(सुब्रह्मण्यायाम्) सुब्रह्मण्या नामक निगद में दिव-ब्रह्मणोः) देव और ब्रह्मन् शब्द का (एकश्रुति) एकश्रुति स्वर (न) नहीं होता है (तु) किन्तु (स्वरितस्य) स्वरित स्वर को (अनुदात्तः) अनुदात्त स्वर होता है।
उदा०- देवा:, ब्रह्माणः । यहां इन दोनों पदों को आमन्त्रितस्य च' (अ०६।१।१८) से आद्युदात्त करने पर तथा शेष वर्गों को अनुदात्तं पदमेकवर्जम् (६।१।१५८) से अनुदात्त हो जाने पर उदात्तानुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६६) से स्वरित हो जाता है, तत्पश्चात् इस सूत्र से उस स्वरित को अनुदात्त आदेश होता है। देवाः । ब्रह्माणः । एकश्रुतिः
(११) स्वरितात् संहितायामनुदात्तानाम्।३६। प०वि०-स्वरितात् ५।१ संहितायाम् ७।१ अनुदात्तानाम् ६।३।
स०-अनुदात्तश्च अनुदात्तश्च अनुदात्तश्च तेऽनुदात्ता:, तेषाम्अनुदात्तानाम् (एकशेषद्वन्द्व:) ।
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