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प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
१०३ उदा०-ह्रस्व: (रै) अतिरि। (गो) उपगु। (नौ) अतिनु। दीर्घ: (चि) चीयते। (श्रु) श्रूयते । प्लुत: (अ) देवदत्त३ । यज्ञदत्त३ ।
आर्यभाषा-अर्थ- (ह्रस्वदीर्घप्लुत:) ह्रस्व हो जाये, दीर्घ हो जाये, प्लुत हो जाये, जब शब्दशास्त्र में ऐसा कहा जाये तब (च) वह पूर्वोक्त ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत (अच:) अच् स्वर के स्थान में ही होता है। यह स्थानी का नियमन करनेवाला परिभाषा-सूत्र है।
उदा०-ह्रस्व (रे) अतिरि। (गो) उपगु। (नौ) अतिनु । दीर्घ (चि) चीयते। (श्रु) श्रूयते। प्लुत (अ) देवदत्त३ । यज्ञदत्त३ ।
सिद्धि-(१) अतिरि। अति+रै। अति+रि। अतिरि+सु। अतिरि। रायमतिक्रान्तमिति अतिरि कुलम्। यहां ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य (१।२।४७) से ह्रस्व होता है। अतिरिकुलम्रै (धन) का अतिक्रमण करनेवाला कुल। नावमतिक्रान्तमिति अतिनुकुलम् । नौका का अतिक्रमण करनेवाला कुल। अतिक्रमण जीतना।
(२) चीयते । चि+लट् । चि+त। चि+यक्+त। चि+य+ते। ची+य+त। चीयते।
यहां चिञ् चयने (स्वा० उ०) धातु से सार्वधातुके यक (३।११६७) में यक् प्रत्यय और 'अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः' (७।४।२५) से चि धातु को दीर्घ हो जाता है। इसी प्रकार श्रु श्रवणे (स्वा०प०) धातु से-श्रूयते । चीयते । चुना जाता है। श्रूयते । सुना जाता है।
(३) देवदत्त३ । यहां वाक्यस्य टे: प्लुत उदात्त:' (८।२।८२) से सम्बोधन में वाक्य की टि को प्लुत किया गया है-आगच्छ भो! माणवक देवदत्त३ । हे बालक ! देवदत्त तू आ।
स्वरप्रकरणम् उदात्तसंज्ञा
(१) उच्चैरुदात्तः ।२६। प०वि०-उच्चैः अव्ययपदम्, उदात्त: १।१। अनु०-'अच्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-उच्चैरज् उदात्त: ।
अर्थ:-कण्ठादीनां स्थानानामुच्चैर्भागे निष्पन्नोऽच्, उदात्तसंज्ञको भवति।
उदा०-ये। के। ते।
आर्यभाषा-अर्थ-(उच्चैः) कण्ठ आदि स्थानों के ऊचे भाग से उत्पन्न होनेवाले (अच्) स्वर की (उदात्त:) उदात्त संज्ञा होती है।
उदा०-ये। के। ते।
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