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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-(उकाल) दधि। मधु। (ऊकाल) कुमारी। गौरी। (ऊ३काल) देवदत्त अत्र न्वसि।
ऊकालस्वर-तालिका
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९ २२ विशेष-(१) “स्वरों की ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत भेद से तीन संज्ञा हैं। इनके उच्चारण समय का लक्षण यह है कि जितने समय में अंगुष्ठ की मूल की नाड़ी एक बार गति करती है उतने समय में ह्रस्व, उससे दूने काल में दीर्घ और उससे तिगुने काल में प्लुत का उच्चारण करना चाहिये" (महर्षि दयानन्दकृत वर्णोच्चारणशिक्षा)।
(२) ऊकाल' यहां उ-ऊ-ऊ३काल इन तीनों का प्रश्लिष्ट उपदेश किया गया है।
(३) ह्रस्वदीर्घप्लुत:' यहां ह्रस्वश्च दीर्घश्च, प्लुतश्च एतेषां समाहार:-हस्वदीर्घप्लुतम् इस द्वन्द्व एकवद्भाव में हस्वदीर्घप्लुतम् ऐसा पद होना चाहिये, क्योंकि स नपुंसकम् (२।४।१७) से द्वन्द्व एकवद्भाव में नपुंसकलिङ्ग होता है। इसका उत्तर यह है कि “छन्दोवत सूत्राणि भवन्ति" सूत्रों की रचना छन्द के समान है। जैसे छन्द में लिङ्ग का व्यत्यय होता है, वैसे यहां भी यह लिङ्ग-व्यत्यय समझना चाहिये। हस्वदीर्घप्लुतानां स्थानिनियमः
(२) अचश्च।२८। प०वि०-अच: ६ १ च अव्ययपदम्। अनु०-'अच् ह्रस्वदीर्घप्लुत:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-हस्वदीर्घप्लुतोऽच् अचश्च ।
अर्थ:-ह्रस्व:, दीर्घः, प्लुत इत्येवं यो विधीयमानोऽच् सोऽच एव स्थाने भवति।
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