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भूमिका गोविन्ददत्त जी मथुरा के संग्रह में सुरक्षित है। एक वेदान्तविषयक ग्रन्थ श्री गंगादत्त जी के पुत्र विदुरदत्त जी के घर बेलोन (बुलन्दशहर) में विद्यमान है।
श्री देवेन्द्र बाबू के अनुसार ये हरयाणा के मूल निवासी थे। पं० युधिष्ठिर मीमांसक का मत है कि ये मूलत: मथुरा के निवासी थे। ये मथुरा में दण्डी घाट पर कुटिया डालकर वर्षों तक तपस्या करते रहे। इस घाट का निर्माण आपके शिष्य किशनसिद्ध महलवाले चतुर्वेदी ने कराया था। दण्डी पूर्णानन्द जी यहां चिरकाल तक रहे अत: यह दण्डी घाट के नाम से प्रसिद्ध हो गया। दण्डी विरजानन्द भी कुछ समय इस घाट पर बनी कुटिया में रहे थे।
२. स्वामी विरजानन्द सरस्वती बाल्यकाल
__पंजाब प्रान्त के जालन्धर नगर से ९ मील पश्चिम में स्थित कर्तारपुर नगर के समीप बेई नामक नदी के तट पर गंगापुर नामक एक ग्राम था। बेई नदी की किसी बाढ़ ने उसका अस्तित्व समाप्त कर दिया। अत: अब उसका नाममात्र ही शेष रह गया है। उस गंगापुर नामक ग्राम में एक सारस्वत ब्राह्मण नारायणदत्त शर्मा रहते थे। ये शारद शाखा के ब्राह्मण थे। उनका गोत्र भारद्वाज था। इनके घर में पौरोहित्य के अतिरिक्त वस्त्रों की छपाई का भी काम होता था। पं० नारायणदत्त के घर १७७८ ई० में एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम व्रजलाल रखा गया। इनके बड़े भाई का नाम धर्मचन्द था। पांच-छ: वर्ष की अवस्था में शीतला (चेचक) रोग से इनकी आंखें जाती रहीं। ___बालक व्रजलाल का विद्यारम्भ पांचवें वर्ष में तथा उपनयन संस्कार आठवें वर्ष में किया गया। इस बालक ने अपने पूज्य पिता जी से ही संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रारम्भ किया। अमर कोष कण्ठस्थ कर लिया और सारस्वत व्याकरण हलन्त पुंलिंग प्रकरण तक पढ़ लिया था कि इनके पिता जी का स्वर्गवास होगया। घर पर ही पञ्चतन्त्र, हितोपदेश भी पढ़ा था, और संस्कृतभाषण का अच्छा अभ्यास होगया था। पिता जी के स्वर्गवास के कुछ समय पश्चात् माता सरस्वती जी का भी स्वर्गवास हो गया। गृहत्याग
माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् ये १२ वर्ष की अवस्था में अपने बड़े भाई धर्मचन्द के आश्रित होगए। भाई और भावज के तिरस्कारपूर्ण व्यवहार से खिन्न होकर एक दिन बिना किसी से कहे-सुने घर से निकल पड़े। निर्भीकता से मार्ग पूछते हुए चलते रहे। जब कोई उनसे कुछ पूछता था तो ये संस्कृतभाषा में ही उत्तर देते थे। घोर तप
व्रजलाल देशाटन करते हुए ऋषीकेश पहुंचे और वहां घोर तप आरम्भ किया।
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