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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् एक शेर के द्वारा किया गया। __वैयाकरणों में किवदन्ती है कि पाणिनि मुनि की मृत्यु त्रयोदशी के दिन हुई थी। अत: पाणिनीय वैयाकरण प्रत्येक त्रयोदशी को अवकाश रखते हैं। यह परिपाटी काशी में आज तक वर्तमान है।
येन धौता गिर: पंसां विमलैः शब्दवारिभिः । तमश्चाज्ञानजं भिन्नं तस्मै पाणिनये नमः ।। अष्टाध्यायी-शिक्षा का इतिहास
अष्टाध्यायी के पुनरुद्धारक
१. स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती हरयाणा के एक गौड़ ब्राह्मण प्रकाण्ड विद्वान् हुये हैं। उनके प्रथमाश्रम का नाम तो ज्ञात नहीं है किन्तु वे संन्यासी होकर पूर्णानन्द सरस्वती नाम से विख्यात हुए। पं० लेखराम जी ने इनका स्थान हरद्वार लिखा है। गुरुवर विरजानन्द के शिष्य श्री नवनीत जी के पुत्र श्री गोविन्ददत्त के कथनानुसार स्वामी पूर्णानन्द जी मूलत: मथुरा के निवासी थे। इनके गुरु आनन्द स्वामी दण्डी थे। ये वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी के उच्चकोटि के विद्वान् थे किन्तु अष्टाध्यायी आदि आर्ष ग्रन्थों के बड़े श्रद्धालु थे। सुना जाता है कि सन् १८५७ के स्वातन्त्र्य संग्राम में इनकी आयु १०० वर्ष से अधिक थी। इस प्रसिद्धि के अनुसार इनका जन्म १७४७ ई० के लगभग का था।
स्वा० पूर्णानन्द सरस्वती की विद्या और तप की महिमा सुनकर एक तरुण तपस्वी व्रजलाल इनके चरण-शरण में आया और इनसे संन्यास-दीक्षा लेकर विरजानन्द सरस्वती नाम पाया। उस समय के ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य भी स्वा० पूर्णानन्द सरस्वती के शिष्य थे। स्वा० विरजानन्द ने इनसे वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी पढ़ी तथा पाणिनीय अष्टाध्यायी के प्रति विशिष्ट श्रद्धा भी दायभाग में प्राप्त की। इस प्रकार स्वा० पूर्णानन्द स्वा० विरजानन्द के दीक्षा-गुरु तथा शिक्षा गुरु भी थे। स्वा० पूर्णानन्द ने वै०सि० कौमुदी समाप्त कराके पातञ्जल व्याकरण महाभाष्य के अध्ययन के लिए काशी जाने की प्रेरणा की। उस समय महाभाष्य के नवाह्निक (अष्टा० प्रथमाध्याय का प्रथमपाद) तथा अंगाधिकार (अष्टा० षष्ठाध्याय का चतुर्थपाद और सप्तमाध्याय) पढ़ने का ही प्रलचन था। विरजानन्द महाभाष्य के अध्ययन के लिए दूसरे ही दिन एक छात्र के साथ हरद्वार से काशी की ओर चल पड़े।
आपने सौन्दर्य लहरी की एक संस्कृत टीका लिखी थी। इस टीका का हस्तलेख तथा स्वामी पूर्णानन्द जी के हाथ से लिखी दक्षिणामूर्ति संहिता की पुस्तक पं०
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