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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् गंगा की जलधारा में खड़े होकर गायत्री मन्त्र का जप करते रहे। एक दिन रात्रि में एक आकाशवाणी सुनाई दी- “तुम्हारा जो कुछ होना था, वह हो चुका, अब तुम यहां से चले जाओ" । इस वाणी को सुनकर ये हरद्वार चले गए। संन्यास दीक्षा
हरद्वार में आपने स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास दीक्षा लेकर विरजानन्द सरस्वती नाम पाया तथा उनसे वै०सि० कौमुदी का अध्ययन किया। अष्टाध्यायी के कुछ सूत्र भी कण्ठस्थ किये । गुरुवर की प्रेरणा से आप महाभाष्य के अध्ययन के लिए हरद्वार से काशी चले गए। काशी निवास
(१८००-१८११ ई०) काशी में विरजानन्द मनोरमा, शेखर आदि ग्रन्थ स्थान-स्थान पर जाकर पढ़ आते थे। पाठ को सुनकर मेधा बुद्धि से अनायास ही हृदयंगम कर लेते थे। यहां इन्होंने जिज्ञासु शिष्यों को पढ़ाना भी आरम्भ कर दिया था। आपने काशी में पं० गौरीशंकर से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया। आपने अपने शब्द-बोध नामक ग्रन्थ की पुष्पिका में पं० गौरीशंकर को गुरुवर के रूप में स्मरण किया है। यह ग्रन्थ आपने अलवरनरेश श्री विनयसिंह को व्याकरणशास्त्र पढ़ाने के लिए लिखा था। आज यह ग्रन्थ अलवर के राजकीय पुस्तकालय सरस्वती भण्डारागार में ३३३४ नं० पर सुरक्षित है। महाभाष्य की खोज
काशी में ५-६ मास के घोर परिश्रम के उपरान्त आपको महाभाष्य का एक हस्तलेख प्राप्त हुआ जो कि बहुत अशुद्ध था। स्वामी विरजानन्द तथा उनके शिष्य स्वामी दयानन्द की कृपा से आगे चलकर तो अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य का पुस्तक सर्वसुलभ होगया था किन्तु उस समय ये ग्रन्थ अति दुर्लभ थे। अष्टाध्यायी पुस्तक दशग्रन्थी ऋग्वेदी ब्राह्मणों के घर में पढ़ा जाता था और वह भी कुछ शुद्ध और कुछ अशुद्ध। ऋग्वेदी ब्राह्मण अपने ग्रन्थों को किसी को दिखाते भी नहीं थे। वे ऐसा करना अपने धर्म- विरुद्ध मानते थे।
अष्टाध्यायी की दुर्लभता के कारण उस समय वै०सि० कौमुदी में भी अष्टाध्यायी के अध्याय, पाद और सूत्र की संख्या नहीं लिखी थी अत: कौमुदी का अध्ययन उस समय अत्यन्त शुष्क विषय था। कौमुदीपाठी पण्डित
१. एक दिन काशी में आपने किसी कौमुदीपाठी पण्डित से प्रश्न किया कि 'हलन्त्यम्' (१।३।३) में दो पद हैं और उसकी वृत्ति में उपदेशेऽन्त्यं हल् इत् स्यात्
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