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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा-अर्थ-(त्यद्-आदीनि) त्यद् आदि शब्दों की (च) भी (वृद्धम्) वृद्ध संज्ञा होती है। त्यदीयम् । तदीयम् । एतदीयम्।
सिद्धि-(१) त्यदीयम् । त्य+छ। त्यद्+ईय् अ। त्यदीय+सु। त्यदीयम्। यहां 'त्यद्' शब्द की वृद्ध संज्ञा होने से वृद्धाच्छ:' (४।२।११४) से छ' प्रत्यय होता है और 'छ' को पूर्ववत् ईय' आदेश हो जाता है। इसी प्रकार तद्' शब्द से तदीयम्' और 'एतद्' शब्द से एतदीयम्' समझें।
विशेष-त्यद् आदि शब्दों का सर्वादिगण में पाठ किया गया है। त्यद् आदि शब्द ये हैं-त्यद् । तद् । यद् । एतद् । इदम् । अदस् । एक। द्वि। युष्मद् । अस्मद् । भवतु । किम्। प्राग्देशीय एङ
(३) एङ् प्राचां देशे।७४। प०वि०-एङ् ११ प्राचाम् ६।३ देशे ७१। अनु०-'यस्याचामादिस्तद् वृद्धम्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-यस्याचामादिरेङ् प्राचां देशे वृद्धम् ।
अर्थ:-यस्य वर्णसमुदायस्यादिमोऽच् एङ् भवति, स वर्णसमुदाय: प्राचां देशेऽभिधेये वृद्धसंज्ञको भवति।।
उदा०-एणीपचनीयः । भोजकटीय: । गोनर्दीयः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(यस्य) जिस वर्णसमुदाय के (अचाम्) अचों में (आदिः) आदिम अच् (एड्) एङ् हो, उसकी (प्राचाम्) पूर्व दिशा के दिशे) देश के कथन में (वृद्धम्) वृद्ध संज्ञा होती है।
उंदा०-एणीपचनीयः । भोजकटीयः । गोनर्दीयः।
सिद्धि-एणीपचनीयः। एणीपचन+छ। एणीपचन+इय् अ। एणीपचनीय+सु। एणीपचनीयः। यहां एणीपचन शब्द की वृद्ध संज्ञा होने से वृद्धाच्छ:' (४।२।११४) से छ' प्रत्यय होता है और उसको पूर्ववत् 'ईय्' आदेश हो जाता है। इसी प्रकार 'भोजकट' शब्द से 'भोजकटीय:' और गोनर्द शब्द से गोनर्दीय: समझें। प्राची और उदीची का विभाजन
प्रागुदञ्चौ विभजते हंस: क्षीरोदके यथा।
विदुषां शब्दसिद्ध्यर्थं सा न: पातु शरावती।। अर्थ-जैसे हंस नीर और क्षीर को पृथक्-पृथक् कर देता है, वैसे वैयाकरण विद्वानों की शब्द-सिद्धि के लिये पूर्व और उत्तर देश का शरावती (साबरमती) नदी विभाग कर देती है। इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचने
प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः समाप्तः।
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