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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) सुप् । सु, औ, जस्, अम्, औट, शस्, टा, भ्याम्, भिस्, डे, भ्याम्, भ्यस्, डसि, भ्याम्, भ्यस्, डस्, ओस्, आम्, डि, ओस्, सुप् । यहां सु से लेकर प तक एक सुप्' प्रत्याहार बनाया गया है। सु अन्तिम इत् प् वर्ण के साथ उसके मध्य में पतित प्रत्ययों का और अपने रूप का भी ग्राहक होता है। अत: सुप्' कहने से सु आदि २१ इक्कीस प्रत्ययों का ग्रहण किया जाता है।
(३) तिङ् । तिप, तस्, झि, सिप, थस्, थ, मिप् वस्, मस्, त, आतम्,ि झ, थास्, आथाम्, ध्वम्, इट, वहि, महिङ् । यहां 'ति' से लेकर ङ्' तक एक तिङ्' प्रत्याहार बनाया गया है। ति अन्तिम वर्ण ङ् के साथ उसके मध्य में पतित प्रत्ययों का और अपने रूप का भी ग्राहक होता है। अत: 'तिङ्' कहने से तिप् आदि १८ अठारह प्रत्ययों का ग्रहण किया जाता है। तदन्तग्रहणम
(५) येन विधिस्तदन्तस्य ७१। प०वि०-येन ३।१ विधि: १।१ तदन्तस्य ६।१। स०-सोऽन्ते यस्य स:-तदन्त:, तस्य-तदन्तस्य (बहुव्रीहिः)। अनु०-स्वं रूपम् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-येन विधि: स तदन्तस्य स्वं रूपम्।
अर्थ:-येन विशेषणेन विधिविधीयते स तदन्तस्य (आत्मान्तस्य समुदायस्य) स्वस्य च रूपस्य ग्राहको भवति ।
उदा०-एरच् । जय: । चयः । अय: । ओरावश्यके-अवश्यलाव्यम् । अवश्यपाव्यम्।
आर्यभाषा-अर्थ-यिन) जिस विशेषण से (विधि:) कोई विधि की जाती है वह (तदन्तस्य) आत्मान्त समुदाय की और (स्वम्) अपने (रूपम्) रूप की भी ग्राहक होती है।
उदा०-एरच् । जयः । जीतना। चयः । चुनना। अय: । गति करना। ओरावश्यके। अवश्यलाव्यम्। अवश्य काटने योग्य । अवश्यपाव्यम् । अवश्य पवित्र करने योग्य।
सिद्धि-(१) जयः। जि+अच् । जे+अ+। ज् अय+अ। जय+स। जयः। यहां जि जये (भ्वा०प०) धातु से एरच्' (३।३।५६) इकारान्त धातु से अच् प्रत्यय होता है। यहां 'इ' कहने से इकारान्त का ग्रहण किया जाता है। चिञ् चयने (स्वा०3०) धातु से
चय:'
(२) अयः। इ+अच् । ए+अ। अय्+अ। अय+सु। अयः। यहां 'इण गतौ' (अदा०प०) धातु से एरच् (३।३।५६) से अच्' प्रत्यय होता है। यह धातु 'इ' स्वरूप है अत: स्वरूप ग्रहण से 'इ' धातु से भी अच् प्रत्यय हो जाता है।
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