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नियम बनाये हैं जबकि जैनाचार्यों ने दो हजार वर्ष पूर्व ही इन नियमों की व्यवस्था कर दी थी। 2. सत्याणुव्रत :- गृहस्थ को निम्न पाँच कारणों से असत्य-भाषण का निषेध किया गया हैं - 1. वर-कन्या के सम्बन्ध में असत्य जानकारी देना। 2. पशु आदि के क्रय-विक्रय हेतु असत्य जानकारी देना। 3. भूमि आदि के स्वामित्व के सम्बन्ध में असत्य जानकारी देना। 4. किसी की धरोहर दबाने या अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करने हेतु असत्य बोलना। 5. झूठी साक्षी देना। . इस अणुव्रत के पाँच अतिचार या दोष निम्न हैं - 1. अविचारपूर्वक बोलना या मिथ्या दोषारोपण करना। 2. गोपनीयता भंग करना। 3. स्वपत्नी या मित्र के गुप्त रहस्यों को प्रकट करना। 4. मिथ्या उपदेश अर्थात् लोगों को बहकाना। 5. कूट लेखकरण अर्थात् झूठे दस्तावेज तैयार करना, नकली मुद्रा (मोहर) लगाना या जाली हस्ताक्षर करना।
उपर्युक्त सभी निषेधों की प्रासंगिकता आज भी निर्विवाद है। वर्तमान युग में भी ये सभी दूषित प्रवृत्तियाँ प्रचलित हैं तथा शासन और समाज इन पर रोक लगाना चाहता है।
3. अस्तेयाणुव्रत :- वस्तु के स्वामी की अनुमति के बिना किसी वस्तु का ग्रहण करना चोरी है। गृहस्थ साधक को इस दूषित प्रवृत्ति से बचने का निर्देश दिया गया है। इसकी विस्तृत चर्चा हम सप्त दुर्व्यसन के संदर्भ में कर चुके हैं, अतः यहाँ केवल इसके निम्न अतिचारों की प्रासंगिकता की चर्चा करेंगे - 1. चोरी की वस्तु खरीदना। 2. चौर्यकर्म में सहयोग देना। 3. शासकीय नियमों का अतिक्रमण तथा कर अपवंचन करना। 4. माप-तौल में अप्रमाणिकता रखना। 5. वस्तुओं में मिलावट करना।
उपर्युक्त पाँचों दुष्प्रवृत्तियाँ आज भी अनुचित एवं शासन द्वारा दण्डनीय मानी जाती हैं अतः इनका निषेध अप्रासंगिक या अव्यावहारिक नहीं हैं। वर्तमान युग में ये
श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 21
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