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दुष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं, अतः इन नियमों का पालन अपेक्षित है। 4. स्वपत्नी संतोषव्रत :- गृहस्थोपासक की काम-प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने हेतु इस व्रत का विधान किया गया हैं । यह यौन सम्बन्धों को नियन्त्रित एवं परिष्कारित करता है, और इस संदर्भ में सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करता है। स्वपत्नी के अतिरिक्त अन्यत्र यौन सम्बन्ध रखना जैन श्रावक के लिये निषिद्ध है । पारिवारिक एवं सामाजिक शान्ति एवं सुव्यवस्थ की दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता निर्विवाद है । यह व्रत पति-पत्नी के मध्य एक-दूसरे के प्रति आस्था जागृत करता है और उनके पारस्परिक प्रेम एवं समर्पण भाव को सुदृढ़ करता है। जब भी इस व्रत का भंग होता है, पारिवारिक जीवन में अशांति एवं दरार पैदा हो जाती है। इस व्रत के निम्न पाँच या चार अतिचार या दोष माने गये हैं - 1. अल्पवय की विवाहित स्त्री से अथवा समय विशेष के लिए ग्रहण की गई स्त्री से अर्थात् वेश्या आदि से संभोग करना। 2. अविवाहित स्त्री- जिसमें परस्त्री और वेश्या भी समाहित हैं, से यौन सम्बन्ध स्थपित
करना।
3. अप्राकृतिक साधनों से काम-वासना को सन्तुष्ट करना, जैसे-हस्त मैथुन, गुदा मैथुन, समलिंगी मैथुन आदि। 4. परविवाहकरण अर्थात स्व-सन्तान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह सम्बन्ध करवाना। वर्तमान संदर्भ में इसकी एक व्याख्या यह भी हो सकती हैं कि एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना। 5. काम-भोग की तीव्र अभिलाषा करना।
उपर्युक्त पांच निषेधों में कोई भी ऐसा नहीं हैं, जिसे अव्यावहारिक और वर्तमान संदर्भो में अप्रासंगिक कहा जा सके। 5. परिग्रह परिमाण व्रत:- इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपनी सम्पत्ति अर्थात जमीन-जायदाद, बहुमूल्य धातुएँ, धन-धान्य, पशु एवं अन्य वस्तुओं की एक सीमा रेखा निश्चित करे और उसका अतिक्रमण नहीं करें। व्यक्ति में संग्रह की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और किसी सीमा तक गृहस्थ-जीवन में संग्रह आवश्यक भी हैं, किन्तु यदि संग्रह-वृत्ति को नियन्त्रित नहीं किया जावेगा तो समाज में गरीब और अमीर की खाई और गहरी होगी और वर्ग संघर्ष अपरिहार्य हो जावेगा। परिग्रह परिमाणव्रत या इच्छा परिमाणव्रत इसी संग्रह वृत्ति को नियंत्रित करता है और आर्थिक वैषम्य का समाधान प्रस्तुत करता है। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में कोई सीमारेखा नियत नहीं
श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 22
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