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प्राणियों) की हिंसा का त्याग करता है। हिंसा के चार रूप हैं -1. आक्रामक (संकल्पी), 2. सुरक्षात्मक (विरोधजा), 3. औद्योगिक (उद्योगजा), 4. जीवन-यापन के अन्य कार्यों में हाने वाली (आरम्भजा)। हिंसा के ये चारों रूप भी दो वर्गों में विभाजित किये गये हैं-1. हिंसा की जाती है और 2. हिंसा करनी पड़ती है। इससे आक्रामक हिंसा की जाती हैं, जबकि सुरक्षात्मक, औद्योगिक और आरम्भजा हिंसा करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक,
औद्योगिक और आरम्भजा हिंसा में हिंसा का निर्णय तो होता है, किन्तु वह निर्णय विवशता में लेना होता है, अतः उसे स्वतंत्र ऐच्छिक निर्णय नहीं कह सकते हैं। इन स्थितियों में हिंसा की नही जाती, अपितु करनी पड़ती है। सुरक्षात्मक हिंसा केवल सुरक्षात्मक दृष्टि से ही करनी पड़ती है। इसके अतिरिक्त हिंसा का एक रूप वह है जिसमें हिंसा हो जाती है, जैसेकृषिकार्य करते हुए सावधानी के बावजूद हो जाने वाली त्रस-हिंसा । जीवनरक्षण एवं आजीविकोपार्जन में होने वाली हिंसा से उसका व्रत दूषित नहीं माना गया है। सामान्यतया यह कहा जाता है कि जैनधर्म में अहिंसा का पालन जिस सूक्ष्मता के साथ किया जाता है, वह उसे अव्यावहारिक बना देता है किन्तु यदि हम गृहस्थ उपासक के अहिंसा अणुव्रत के उपर्युक्त विवेचन को देखते हैं तो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि अहिंसा की जैन अवधारणा किसी भी स्थिति में अप्रासंगिक और अव्यावहारिक नहीं हैं। वह न तो व्यक्ति या राष्ट्र के आत्म-सुरक्षा के प्रयत्न में बाधक है और न उसकी औद्योगिक प्रगति में । उसका विरोध है तो मात्र आक्रामक हिंसा से और आज कोई भी विवेकशील प्राणी या राष्ट्र आक्रामक हिंसा का सर्मथक नहीं हो सकता है।
गृहस्थ उपासक के अहिंसाणुव्रत के जो पांच अतिचार (दोष) बताये गये हैं वे भी पूर्णतया व्यावहारिक और प्रासंगिक हैं। इन अतिचारों की प्रासंगिक व्याख्या निम्न हैं1. बन्धन :-प्राणियों को बंधन में डालना । आधुनिक सन्दर्भ में अधीनस्थ कर्मचारियों को निश्चित समयावधि से अधिक रोककर कार्य लेना अथवा किसी की स्वतंत्रता का अपहरण करना भी इसी कोटि में आता हैं। 2. वध :- अंगोपांग का छेदन और घातक प्रहार करना। 3. वृत्तिच्छेद :- किसी की आजीविका को छीनना या उसमें बाधा डालना। 4. अतिभार :- प्राणी की सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना या कार्य लेना। 5. भक्त - पान निरोध:-अधीनस्थ पशुओं एवं कर्मचारियों की समय पर एवं आवश्यक भोजन-पानी की व्यवस्था न करना। उपर्युक्त अनैतिक आचरणों की प्रासंगिकता आज भी यथावत है। शासन ने शनैः शनैः इनकी प्रासंगिकता के आधार पर इन्हें रोकने हेतु कुछ
श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 20
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