SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यद्यपि नारी स्वभाव का यह चित्रण वस्तुतः उसके घृणित पक्ष का ही चित्रण करता हैं किन्तु इसकी आनुभाविक सत्यता से इन्कार भी नहीं किया जा सकता किन्तु इस आधार पर यह मान लेना कि नारी के प्रति जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अनुदार ही था, उचित नहीं होगा । जैन धर्म मूलतः एक निवृत्तिपरक धर्म रहा है, निवृत्तिपरक होने के कारण उसमें सन्यास और वैराग्य पर विशेष बल दिया गया है । सन्यास और वैराग्य के लिए यह आवश्यक था कि पुरूष के सामने नारी का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जाय जिसके फ लस्वरूप उसमें विरक्ति का भाव प्रस्फुटित हो । यही कारण था कि जैनाचार्यों ने आगमों और आगमिक व्याख्याओं और इतर साहित्य में कठोर शब्दों में नारी - चरित्र की निन्दा की, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं रहा कि जैनाचार्यों के सामने नारी चरित्र का उज्ज्वलतम पक्ष नहीं रहा है । सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो शील - प्रध्वंसक चरित्रगत दोष नारी में पाये जाते है वे पुरूषो में भी पाये जाते हैं इसलिए वैराग्य मार्ग में प्रवर्तित स्त्रियों को भी पुरूषों से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार स्त्रियों से पुरूषों को बचने का उपदेश दिया गया है।” इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने नारी चरित्र का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह मात्र पुरूषों में वैराग्य भावना जागृत करने हि । भगवती आराधना में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया हैं - स्त्रियों में जो दोष होते हैं वे दोष नीच पुरूषों में भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त होते हैं उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष होते हैं। जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले पुरूषों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही अपने शील की रक्षा करने वाली स्त्रियों के लिए पुरूष निन्दनीय हैं। सब जीव मोह के उदय से मलिन होते हैं और वह मोह का उदय स्त्री-पुरूषों में समान रूप से होता है । अतः ऊपर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया गया है वह सामान्य स्त्री की दृष्टि से है। शीलवती स्त्रियों में ऊपर कहे हुए दोष कैसे हो सकते हैं ? 18 जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी चरित्र का उज्ज्वल पक्ष स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा गया हैं जो गुणसहित स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोक में फैला हुआ है तथा जो मनुष्य लोक में देवता समान हैं और देवों से पूजनीय हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और श्रेष्ठ गणधरों को जन्म देने वाली महिलाएँ श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरूषों के द्वारा पूजनीय होती हैं। कितनी ही महिलाएँ एक पतिव्रत और कौमार्य ब्रह्मचर्य - व्रत धारण करती हैं कितनी ही जीवनपर्यन्त वैधव्य का तीव्र दुःख भोगती हैं। ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी Jain Education International जैन धर्म में नारी की भूमिका : 8 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy