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________________ तरह जीती हुई, प्रसन्न की हुई और अच्छी तरह परिचित अटवी और स्त्री का विश्वास नहीं करना चाहिए। क्या इस समस्त जीवलोक में कोई अंगुली उठाकर कह सकता है, जिसने स्त्री की कामना करके दुःख न पाया हो ? उसके स्वभाव के सम्बन्ध में यही कहा गया है कि स्त्रियाँ मन से कुछ सोचती हैं, वचन से कुछ और कहती हैं तथा कर्म से कुछ और करती हैं। स्त्रियों का पुरूषों के प्रति व्यवहार स्त्रियाँ पुरूषों को अपने जाल में फंसाकर फिर किस प्रकार उसकी दुर्गति करती हैं उसका सुन्दर एवं सजीव चित्रण सूत्रकृतांग और उसकी वृत्ति में उपलब्ध होता है। उस चित्रण का संक्षिप्त रूप निम्न है -16 जब वे पुरूष पर अपना अधिकार जमा लेती हैं तो फिर उसके साथ आदेश की भाषा में बात करती हैं। वे पुरूष से बाजार जाकर अच्छे-अच्छे फल, छुरी, भोजन बनाने हेतु ईंधन तथा प्रकाश करने हेतु तेल लाने को कहती हैं। फिर पास बुलाकर महावर आदि से पैर रंगने और शरीर में दर्द होने पर उसे मलने को कहती हैं। फिर आदेश देती हैं कि मेरे कपड़े जीर्ण हो गये हैं नये कपड़े लाओं, तथा भोजन-पेय पदार्थादि लाओ। वे अनुरक्त पुरूष की दुर्बलता जानकर अपने लिए आभूषण, विशेष प्रकार के पुष्प, बाँसुरी तथा चिरयुवा बने रहने के लिए पौष्टिक औषधि की गोली मँगाती हैं । तो कभी अगरू, तगर आदि सुगन्धित द्रव्य अपनी प्रसाधन सामग्री रखने हेतु पेटी,ओष्ठ रंगने चूर्ण, छाता, जूता आदि माँगती हैं। वे अपने वस्त्रों को रंगवाने का आदेश देती हैं तथा नाक केकेशों को उखाड़ने के लिए चिमटी, केशों के लिए कंघी, मुख-शुद्धि हेतु दातौन आदि लाने को कहती हैं। पुन: वह अपने प्रियतम से पानसुपारी, सुई-धागा, मूत्रविसर्जन पात्र, सूप, उखल आदि तथा देव-पूजा हेतु ताम्रपात्र और मद्यपान हेतु मद्य-पात्र माँगती हैं। कभी वे अपने बच्चों के खेलने हेतु मिट्टी की गुड़िया, बाजा, झुनझुना, गेंद आदि मंगवाती है और गर्भवती होने पर दोहद-पूर्ति के लिए विभिन्न वस्तुएँ लाने का आदेश देती हैं। कभी वे उसे वस्त्र धोने का आदेश देती हैं, कभी रोते हुए बालक को चुप कराने के लिए कहती इस प्रकार कामिनियाँ दास की तरह वशवर्ती पुरूषों पर अपनी आज्ञा चलाती हैं। वे उनसे गधे के समान काम करवाती हैं और काम न करने पर झिड़कती हैं, आँखें दिखाती हैं तो कभी झूठी प्रशंसा कर उससे अपना काम निकालती हैं। जैन धर्म में नारी की भमिका:7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003244
Book TitleJain Dharm me Nari ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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