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जब
चित्र लेते हैं। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम तो हम यह देखेंगे कि एक ही वृक्ष के विभिन्न से विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा हजारों हजार चित्र लिये जा सकते है। साथ ही इन हजारों हजार चित्रों के बावजूद भी वृक्ष का बहुत कुछ भाग ऐसा है जो कैमरों की पकड़ से अछूता रह गया है । पुनः जो हजारों हजार चित्र विभिन्न कोणों से लिए गये हैं, वे एक दूसरे से भिन्नता रखते हैं । यद्यपि वे सभी उसी वृक्ष के चित्र हैं । केवल उसी स्थिति में दो चित्र समान होंगे जब उनका कोण और वह स्थल जहाँ से वह चित्र लिया गया है - एक ही हो। अपूर्णता और भिन्नता दोनों ही बातें इन चित्रों में है। यही बात मानवीय ज्ञान के सम्बन्ध में भी हैं। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता और शक्ति सीमित है। वह एक अपूर्ण प्राणी है । अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा सकते हैं। हमारा ज्ञान, तक कि वह ऐन्द्रिकता का अतिक्रमण नहीं कर जाता, सदैव आंशिक और अपूर्ण होता है। इसी आंशिक ज्ञान को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो विवाद और वैचारिक संघर्षों का जन्म होता है । उपर्युक्त उदाहरण में वृक्ष के सभी चित्र उसके किसी एक अंश विशेष को ही अभिव्यक्त करते हैं । वृक्ष के इन सभी अपूर्ण एवं भिन्न-भिन्न और दो विरोधी कोणों से लिये जाने के कारण - किसी सीमा तक परस्पर विरोधी - अनेक चित्रों में हम यह कहने का साहस नहीं कर सकते हैं कि यह चित्र उस वृक्ष का नहीं है अथवा यह चित्र असत्य है। इसी प्रकार हमारे आंशिक एवं दृष्टिकोणों पर आधारित सापेक्ष ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों को असत्य कहकर नकार दें । वस्तुत: हमारी ऐन्द्रिक क्षमता, तर्कबुद्धि, शब्दसामर्थ्य और भाषायी अभिव्यक्ति सभी अपूर्ण, सीमित और सापेक्ष है । ये सम्पूर्ण सत्य की एक साथ अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है । मानव बुद्धि सम्पूर्ण सत्य का नहीं, अपितु उसके एकांश का ग्रहण कर सकती है । तत्त्व या सत्ता अज्ञेय तो नहीं है किन्तु बिना पूर्णता को प्राप्त हुए उसे पूर्णरूप से जाना भी नहीं जा सकता । आइन्स्टीन ने कहा था हम सापेक्ष सत्य को जान सकते है, निरपेक्ष सत्य को तो कोई निरपेक्ष द्रष्टा ही जानेगा । जब तक हमारा ज्ञान अपूर्ण सीमित या सापेक्ष है तब तक
दूसरों के ज्ञान और अनुभव को चाहे वह हमारे ज्ञान का विरोधी क्यों न हो, असत्य कहकर निषेध करने का कोई अधिकार नहीं । आंशिक सत्य का ज्ञान दूसरों द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेधक नहीं हो सकता है । ऐसी स्थिति में यह कहना कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, सत्य मेरे ही पास है - दार्शनिक दृष्टि से एक भ्रान्त धारणा ही है ।
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धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 22
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