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करते हैं कि जिससे लोगों की भावनाएँ या धर्मोन्माद उभड़े और उन्हें अपने निहित स्वार्थों की सिद्धि का अवसर मिले। वे यह भी कहते हैं कि शास्त्र में एक शब्द का भी परिवर्तन करना याशास्त्र की अन् हेलना करना बहुत बड़ा पाप है । मात्र यही नहीं वे जनसामान्य को शास्त्र के अध्ययन का अनाधिकारी मानकर अपने को ही शास्त्र का एकमात्र सच्चा व्याख्याता सिद्ध करते हैं और शास्त्र के नाम पर जनता को मूर्ख बनाकर अपना हित साधन करते रहते हैं । धर्म के नाम पर युगों-युगों से जनता का इसी प्रकार शोषण होता रहा है। अत: यह आवश्यक है कि शास्त्र की सारी बातों और उनकी व्याख्याओं को विवेक के तराजू पर तौला जाये। उनके सारे नियमों और मर्यादाओं का युगीन सन्दर्भ में मूल्यांकन और समीक्षा की जाये। जब तक यह सब नहीं होता है तब तक धार्मिक जीवन में आयी हई संकीर्णता को मिटा पाना संभव नहीं । विवेक ही एक तत्त्व है जो हमारी दृष्टि को उदार और व्यापक बना सकता है। श्रद्धा आवश्यक है किन्तु उसे विवेक की अनुगामी होना चाहिए। विवेक युक्त श्रद्धा ही सम्यक् श्रद्धा है। वही हमें सत्य का दर्शन करा सकती है। विवेक से रहित श्रद्धा अंध-श्रद्धा होगी और हम उसके आधार पर अनेक अंधविश्वासों के शिकार बनेंगे। आज धार्मिक उदारता और सहिष्णुता के लिए श्रद्धा को विवेक से समन्वित किया जाना चाहिए। इसलिए जैनाचार्यों ने कहा था कि सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन (श्रद्धा) में एक सामंजस्य होना चाहिए।
जैनधर्म में धार्मिक सहिष्णुता का आधार -अनेकान्तवाद
जैन आचार्यों की मान्यता है कि परमार्थ, सत्या वस्तुतत्त्व अनेक विशेषताओं और गुणों का पुंज है। उनका कहना था कि 'वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मत्मक' है ।2 उसे अनेक दृष्टियों से जाना जा सकता है। अत: उसके सम्बन्ध में कोई निर्णय निरपेक्ष
और पूर्ण नहीं हो सकता है। वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान और कथन दोनों ही सापेक्ष हैं अर्थात् वे किसी सन्दर्भ या दृष्टिकोण के आधार पर ही सत्य है। आंशिक एवं सापेक्ष ज्ञान/कथन को अपने से विरोधी ज्ञान/कथन को असत्य कहकर नकारने का अधिकार नहीं है। इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्टतया समझ सकते हैं। कल्पना कीजिए कि अनेक व्यक्ति अपने-अपने कैमरों से विभिन्न कोणों से एक वृक्ष का
धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 21
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