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यद्यपि जैनों के अनुसार सर्वज्ञ या पूर्ण- पुरूष संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, फिर भी उसका ज्ञान और कथन उसी प्रकार निरपेक्ष- अपेक्षा से रहित नहीं हो सकता है, जिस प्रकार बिना किसी कोण के किसी भी वस्तु का कोई भी चित्र नहीं लिया जा सकता है । पूर्ण सत्य का बोध चाहे संभव हो किन्तु उसे न तो निरपेक्ष रूप सकता है और न कहा ही जा सकता है । उसकी अभिव्यक्ति का जब भी कोई प्रयास किया जाता है, वह आंशिक और सापेक्ष बनकर ही रह जाता हैं । पूर्ण पुरूष को भी हमें समझाने के लिए हमारी उसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है जो सीमित, सापेक्ष और अपूर्ण है । 'है' और 'नहीं है' की सीमा से घिरी हुई भाषा पूर्ण सत्य का प्रकटन कैसे करेगी। इसीलिए जैन परम्परा में कहा गया था कि कोई भी वचन (जिनवचन भी) नय ( दृष्टिकोण विशेष ) से रहित नहीं होता है अर्थात् सर्वज्ञ के कथन भी सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं । 23 जैन परम्परा के अनुसार जब सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष रूप से दूसरे सत्यों का निषेधक मान लिया जाता है तो वह असत्य बन जाता है और इसे ही जैनों की परम्परागत शब्दावली में मिथ्यात्व कहा गया है। जिस प्रकार अलग-अलग कोणों से लिये गये चित्र परस्पर भिन्न-भिन्न और विरोधी होकर भी एक साथ यथार्थ के परिचायक होते हैं उसी प्रकार अलग-अलग संदर्भों में कहे गये भिन्न-भिन्न विचार परस्पर विरोधी होते हुए भी सत्य हो सकते हैं । सत्य केवल उतना नहीं है, जितना हम जानते हैं । अत: हमें अपने विरोधियों के सत्य का निषेध करने का अधिकार भी नहीं है । वस्तुतः सत्य केवल तभी असत्य बनता है जब हम उस अपेक्षा या दृष्टिकोण को दृष्टि से ओझल कर देते हैं, जिसमें वह कहा गया है । जिस प्रकार चित्र में वस्तु की सही स्थिति को समझने के लिए उस कोण का भी ज्ञान अपेक्षित होता है, उसी प्रकार वाणी में प्रकट सत्य को समझने के लिए उस दृष्टिकोण का विचार अपेक्षित है जिसमें वह कहा गया है। समग्र कथन संदर्भ सहित होते है और उन संदर्भों से अलग हटकर उन्हें नहीं समझा जा सकता है। जो ज्ञान सन्दर्भ सहित है, वह सापेक्ष हैं और जो सापेक्ष है वह अपनी सत्यता का दावा करते हुए भी दूसरे की सत्यता का निषेधक नहीं हो सकता है । सत्य के सम्बन्ध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जो विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों को सापेक्षिक सत्यता एवं मूल्यवत्ता को स्वीकार कर उनमें परस्पर सौहार्द्र और समन्वय स्थापित कर सकता हैं। अनेकान्त की आधारभूमि पर ही यह मानना सम्भव है कि हमारे और हमारे विरोधी के विश्वास और कथन दो भिन्न-भिन्न परिपेक्ष्यों में एक साथ सत्य हो
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धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 23
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