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एवं नैतिक विकास की अवस्था विशेष न होकर व्यक्ति विशेष बन जाता हैं, तो फिर स्वभाविक रूप से ही आग्रह का घेरा खड़ा हो जाता है। हम मानने यह लगते हैं कि महावीर हमारे हैं, बुद्ध हमारे नहीं। राम हमारे उपास्य हैं, कृष्ण या शिव हमारे उपास्य नहीं हैं।
अत: यदि हम व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास की भूमिका विशेष को अपना उपास्य बनायें तो सम्भवत: हमारे आग्रह और मतभेद कम हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में जैनों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार रहा है। जैनपरम्परा में निम्न नमस्कार मन्त्र को परम-पवित्र माना गया है
नमो अरहंताणं । नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं। नमो लोए सव्वसाहूणं।
-भगवती 1/1 प्रत्येक जैन के लिए इसका पाठ आवश्यक है, किन्तु इसमें किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है। इसमें जिन पाँच पदों की वन्दना की जाती है वे व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं । अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु व्यक्ति नहीं हैं, वे आध्यात्मिक और नैतिक विकास की विभिन्न भूमिकाओं के सूचक हैं। प्राचीन जैनाचार्यों की दृष्टि कितनी उदार थी, कि उन्होंने इन पाँचों पदों में किसी व्यक्ति का नाम नहीं जोड़ा । यही कारण हैं कि आज जैनों में अनेक सम्प्रदायगत मतभेद होते हुए भी नमस्कार मंत्र सर्वमान्य बना हुआ है। यदि उसमें कहीं व्यक्तियों के नाम जोड़ दिये जाते, तो सम्भवत: आज तक उसका स्वरूप न जाने कितना परिवर्तित और विकृत हो गया होता। नमस्कार महामंत्र जैनों की धार्मिक उदारता
और सहिष्णुता का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है। उसमें भी 'नमो लोए सव्व साहूणं यह पद तो धार्मिक उदारता का सर्वोच्च शिखर कहा जा सकता हैं। इसमें साधक कहता हैं कि मैं लोक के सभी साधुओं को नमस्कार करता हैं । वस्तुत: जिसमें भी साधुत्व या मुनित्व हैं वह वन्दनीय हैं। हमें साधुत्व को जैन या बौद्ध आदि किसी धर्म या किसी सम्प्रदाय के साथ न जोड़कर गुणों के साथ जोड़ना चाहिए। साधुत्व, मुनित्व या श्रमणत्व वेश या व्यक्ति नहीं हैं, वरन् एक आध्यात्मिक विकास की भूमिका है, एक स्थिति है वह कहीं भी और किसी भी व्यक्ति में हो सकती है।
धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म:13
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