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वीतरागता में बाधक है।' जब तीर्थंकर महावीर के प्रति रहा हुआ राग भाव भी वीतरागता में बाधक हो सकता है तो फिर सामान्यधर्मगुरू और धर्मशास्त्र के प्रति हमारी रागात्मकता क्यों नहीं हमारे आध्यात्मिक विकास में बाधक होगी? यद्यपि जैन परम्परा धर्मगुरू और धर्मशास्त्र के प्रति ऐसी रागात्मकता को प्रशस्त-राग संज्ञा देती है किन्तु वह यह मानती हैं कि यह प्रशस्त-राग भी हमारे बन्धन का कारण हैं । राग राग हैं, फिर चाहे वह महावीर के प्रति क्यों न हो ? जैन परम्परा का कहना है कि आध्यात्मिक विकास की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त करने के लिए हमें इस रागात्मकता से भी ऊपर उठना होगा।
जैन कर्मसिद्धान्त में मोह कर्म को बन्धन का प्रधान कारण माना गया हैं यह मोह दो प्रकार का है - (1). दर्शनमोह और (2). चारित्रमोह। (2). जैन आचार्यों ने दर्शन मोह को भी तीन भागों में बाँटा है- सम्यक्त्व मोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह ।10 मिथ्यात्व मोह का अर्थ तो सहज ही हमें समझ में आ जाता है, मिथ्यात्व मोह का अर्थ है- मिथ्या सिद्धान्तों और विश्वासों का आग्रह अर्थात् गलत सिद्धान्तों और गलत आस्थाओं में चिपके रहना, किन्तु सम्यक्त्व मोह का अर्थ सामान्यतया हमारी समझ में नहीं आता है। सामान्यतया सम्यक्त्व मोह का अर्थ सम्यक्त्व का मोह अर्थात् सम्यक्त्व का आवरण- ऐसा किया जाता है किन्तु ऐसी स्थिति में वह भी मिथ्यात्व का ही सूचक होता है। वस्तुत: सम्यक्त्व-मोह का अर्थ है- दृष्टिराग अर्थात् अपनी धार्मिक मान्यताओं
और विश्वासों को ही एकमात्र सत्य समझना और अपने से विरोधी मान्यताओं और विश्वासों को असत्य मानना । जैन दार्शनिक यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता या वीतरागता की उपलब्धि के लिए जहाँ मिथ्यात्व मोह का विनाश आवश्यक है वहाँ सम्यक्त्व मोह अर्थात् दृष्टिराग से ऊपर उठना भी आवश्यक है। न केवल जैन परम्परा में अपितु बौद्ध परम्परा में भी भगवान् बुद्ध के अन्तेवासी शिष्य आनन्द के सम्बन्ध में भी यह स्थिति है। आनन्द भी बुद्ध के जीवन काल में अर्हत् अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाये। बुद्ध के प्रति उनकी रागात्मकता ही उनके अर्हत् बनने में बाधक रही। चाहे वह इन्द्रभूति गौतम हो या आनन्द हो, यदि दृष्टिराग क्षीण नहीं होता है, तो अर्हत् अवस्था की प्राप्ति सम्भव नहीं है। वीतरागता की उपलब्धि के लिए अपने धर्म और धर्मगुरू के प्रति भी रागभाव का त्याग करना होगा। धार्मिक मतान्धता को कम करने का उपाय- गुणोपासना
धार्मिक असहिष्णुता के कारणों में एक कारण यह है कि हम गुणों के स्थान पर व्यक्तियों से जुड़ने का प्रयास करते हैं। जब हमारी आस्था का केन्द्र या उपास्यआध्यात्मिक
धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म12
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