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________________ उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया हैं कि · न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥ समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥ " सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश - चीवर धारण करने से कोई तापस नहीं होता । समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या तापस कहलाता है । धर्म के क्षेत्र में अपने विरोधी पर नास्तिक, मिथ्यादृष्टि, काफिर आदि का आक्षेपण हमने बहुत किया हैं। हम सामान्यतया यह मान लेते हैं कि हमारे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही आस्तिक, सम्यग्दृष्टि और ईमानवाला हैं और दूसरे धर्म और दर्शन में विश्वास रखने वाला नास्तिक है, मिथ्यादृष्टि है, काफ़िर है, वस्तुतः इन सबके मूल में दृष्टि यह हैं - मै ही सच्चा हूँ और मेरा विरोधी झूठा । यही दृष्टिकोण असहिष्णुता और धार्मिक संघर्षो का मूलभूत कारण है । हमारा दुर्भाग्य इससे भी अधिक है, वह यह कि हम न केवल दूसरों को नास्तिक, मिथ्यादृष्टि या काफिर समझते हैं, अपितु उन्हें सम्यग्दृष्टि और ईमानवाले बनाने की जिम्मेदारी भी अपने सिर पर ओढ़ लेते हैं। हम यह मान लेते हैं कि दुनियाँ को सच्चे रास्ते पर लगाने का ठेका हमने ही ले रखा है। हम मानते हैं कि मुक्ति हमारे धर्म और धर्मगुरू की शरण में ही होगी। इसी एक अंधविश्वास या मिथ्या धारणा ने दुनिया में अनेक बार जिहाद या धर्मयुद्ध कराये हैं। दूसरों को आस्तिक, सम्यकदृष्टि और ईमानवाला बनाने के लिए हमने अनेक बार खून की होलियाँ खेली हैं। पहले तो अपने से भिन्न धर्म या सम्प्रदाय वाले को नास्तिकता या कुफ्र का फतवा दे देना और फिर उसके सुधारने की जिम्मेदारी अपने सिर पर ओढ़ लेना, एक दोहरी मूर्खता है। दुनिया को अपने ही धर्म या सम्प्रदाय के रंग में रंगने का स्वप्न न केवल दिवास्वप्न हैं, अपितु एक दुःस्वप्न भी है। महावीर ने सूत्रकृतांग में बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा है - धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003243
Book TitleDharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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