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है, प्रथम अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ जां तक जीवे तां तक रहे, हटे नही, तिनमे से अनंतानुबंधी क्रोध तो ऐसा कि जाव जीव सुधी क्रोध न छोडे, अपराधी कितनी आधीनगी करे तोभी क्रोध न छोडे, यह क्रोध ऐसा है जैसे पर्वतका फटना फेर कदापि न मिले मान पथ्थरके स्तंभ समान किंचित् मात्रभी न नमे, माया कठिन वांसकी जक समान सूधी न होवे, लोभ कृमिके रंग समान फेर उतरे नही. ये चारों जिसके उदय में होवे सो जीव मरके नरक में जाता है, और इस कषाय के उदय में जीवांकों सच्चे देवगुरु धर्मकी श्रद्धा रूप सम्यक्त नही होता है, ४ दूसरा अप्रत्याख्यान कषाय तिसकी स्थिति एक वर्षकी है. एक वर्ष तक क्रोध मान माया लोभ रहै तिनमें क्रोधका स्वरूप पृथ्वी के रेखा फाटने समान बडि यतन सें मिले, मान हाडके स्तंभे समान मुसकलसें नमे, माया मिंढेके सींगके बल समान सिधा कतनतासें होवे, लोभ नगरकी मोरीके कीचमके दाग समान, इस कषाय के उदय से देशव्रतीपणा न आवे और मरके पशु तीर्यंचकी गतिमें जावे ८ तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषाय तिसकी स्थिति चार मासकी है. क्रोध वालुकी रेखा समान, मान काष्टके स्तंभे समान, माया बैलके मूत्र समान वांकी, लोभ गाडी के खंजन समान, इसके उदयसे शुध साधु नही होता है ऐसा कषायवाला मरके मनुष्य होता है १२ चौथी संज्वलनकी कषाय, तिसकी स्थिति एक पक्षकी. क्रोध पाणीकी लकीर समान, मान बांसकी शींखके स्तंभे समान, माया बांसकी छिल्लक समान, लोभ हलदी के रंग समान, इसके उदयसे वीतराग अवस्था नही होती है. इस कषायवाला जीव मरके स्वर्गमें जाता है १६ जिसके उदयसें हांसी आवे सो हास्य प्रकृति १७ जिसके उदयसें चित्तमें निमित्त निर्निमित्तसें रति अंतरमें खुशी होवे सो रति १८ जिसके उदयसें चित्तमे सनिमित्त निर्निमित्तसें दिलगीरी उदासी उत्पन्न होवें सो अरति प्रकृति १८ जिसके उदयसें इष्ट विजोगादिसें चित्तमें उद्वेग उत्पन्न होवे सो शोक मोहनीय प्रकृति २० जिसके उदय से सात प्रकारका भय उत्पन्न होवे सो भय मोहनीय २१ जिसके उदय से मलीन वस्तु देखी सूग उपजे सो जुगुप्सा मोहनीय २३ जिसके उदयसें स्त्रीके साथ विषय सेवन करने की इच्छा उत्पन्न होवे, सो पुरुषवेद मोहनीय २३ जिसके उदयसे पुरुषके साथ विषय सेवनेकी इच्छा उत्पन्न होवे, सो स्त्री वेद मोहनीय २४ जिसके उदय सें स्त्री पुरुष दोनों के साथ विषय सेवने की अभिलाषा उत्पन्न होवे, सो नपुंशकवेद मोहनीय, २५ जिसके उदय से शुद्ध देव गुरु,
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