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________________ धर्मकी श्रद्धा न होवे सो मिथ्यात्व मोहनीय २६ जिसके उदयसें शुद्ध देव गुरु धर्म अर्थात् जैनमतके उपर रागभी न होवे, और द्वेषभी न होवे, अन्य मतकीभी श्रद्धा न होवे सो मिक्ष मोहनीय २७ जिसके उदयसें शुद्ध देव गुरु धर्मकी श्रद्धातो होवे परंतु सम्यक्तमें अतिचार लगावे सो सम्यक्त मोहनीय २८ इन २८ प्रकृतियोंमें आदिकी २५ पच्चीस प्रकृतिकों चारित्र मोहनीय कहते है, और उपली तीन प्रकृतियोंकों दर्शनमोहनीय कहते है एवं २८ प्रकृति रूप मोहनीय कर्म चौथा है, अथ मोहनीय कर्मके बंध होने के हेतु लिखते है. प्रथम मिथ्यात्व मोहनीय के बंध हेतु उन्मार्ग अर्थात् जे संसार के हेतु हिंसादिक आश्रव पापकर्म, तिनकों मोक्ष हेतु कहे तथा एकांत नयसें निःकेवल क्रिया कष्टानुष्टानसें मोक्ष प्ररु तथा एकांत नयसें निःकेवल ज्ञान मात्र से मोक्ष कहे ऐसेही एकले विनयादिकसें मोक्ष कहै १ मार्ग अर्थात् अर्हत भाषित सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्ष मार्ग तिसमे प्रवर्त्तनेवाले जीवकों कुहेतु, कुयुक्ति, करके पूर्वोक्त मार्ग सें भ्रष्ट करे २ देवद्रव्य ज्ञान द्रव्यादिक तिनमें जो भगवानके मंदिर प्रतिमादिके काम आवे काष्य, पाषाण, मृतीकादिक तथा तिस देहरादिके निमित्त करा हुआ रूपा, सोनादि धन तिसका हरण करे, देहराकी भूमि प्रमुखकों अपनी कर लेवे, देवकी वस्तुसें व्यापार करके अपनी आजीवीका करे तथा देवद्रव्यका नाश करे, शक्ति के हुए देव द्रव्यके नाश करनेवाले को हटावे नही, ये पूर्वोक्त काम करनेवाला मिथ्याद्रष्टि होता है, सो मिथ्यात्व मोहनीय कर्मका बंध करता है, तथा दूसरा हेतु तीर्थंकर केवलीके अवर्णवाद बोले, निंदा करे तथा भले साधुकी तथा जिन प्रतिमाकी निंदा करे तथा चतुर्विध संघ साधु साध्वी श्रावक श्राविका का समुदाय तिसकी श्रुतज्ञानकी निंदा अवज्ञा हीलना करता हुआ, और जिन शासनका उड्डाह करता हुआ अयश करता कराता हुआ निकाचित महा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बांधे. इति दर्शन मोहनीयके बंध हेतु ॥ अथ चारित्रमोहनीय कर्मके बंध हेतु लिखते है । चारित्र मोहनीय कर्म दो प्रकारका है, कषाय चारित्र मोहनीय १. नोकषाय चारित्र मोहनीय २. तिनमें से कषाय चारित्र मोहनीयके १६ सोलां भेद हे, तिनके बंध हेतु लिखते है. अनंतानुबंधी क्रोध, मान माया, लोभमें प्रवर्ते तो सोलाही प्रकारका कषाय मोहनीय कर्म बांधे. अप्रत्याख्यानमे वर्त्ते तो उपल्या कषाय बांधे. प्रत्याख्यानमें प्रवर्त्ते तो उपल्या आठ कषाय बांधे, संज्वलनमें प्रवर्त्ते तो चार संज्वलनका कषाय बांधे. इति कषाय चारित्र मोहनीयके बंध . ७७ १७००००००० Jain Education International For Private & Personal Use Only ७९,७०००० www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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