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________________ है, इस वास्ते दर्शनावरणीयकी प्रकृति है, एवं ९ भेद दर्शनावरणीय कर्म के हुए, इस कर्मके बांधने के हेतु ज्ञानावरणीयकी तरे जानने, परं ज्ञानकी जगे दर्शन पद कहनां, दर्शन चक्षु अचक्षु आदि, दर्शनी साधु आदि जीव, तिनकी पांच इंद्रियाका बुरा चिंते, नाश करे अथवा सम्मति तत्वार्थ द्वादशार नयचक्रवाल तर्कादि दर्शनप्रभावक शास्त्रके पुस्तक वाल तर्कादि दर्शनअभावक शास्त्र के पुस्तक तिनका प्रत्यनीकपणादि करे तो दर्शनावरणीय कर्मका बंध करे, इति दूसरा कर्म २. अथ तीसरा वेदनीय कर्म तिसकी दो प्रकृति है, साता वेदनीय १ असाता वेदनीय २ साता वेदनीय सें शरीर को अपने निमित्त द्वारा सुख होता है, और असातावेदनीय के उदय सें दुःख प्राप्त होता है, एवं दो भेदों के बांधने के कारण प्रथम साता वेदनीयके बंध करणे के कारण गुरु अर्थात् अपने माता पिता धर्माचार्य इनकी भक्ति सेवा करे १ क्षमा अपने सामर्थके हुए दूसरायोंका अपराध सहन करना २ परजीवांकों दुःखी देखके तिनके दुःख मेटनेकी वांछा करे ३ पंच महाव्रत अनुव्रत निर्दूषणा पाले ४ दशविध चक्रवाल समाचारी संयम योग पालने से ५ क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इनके उदय आया इनको निष्फल करे ६ सुपात्र दान, अभय दान, देता सर्व जीवां उपर उपकार करे सर्व जीवांका हित चिंतन करे ७ धर्ममें स्थिर रहे, मरणांत कष्टकेभी आये, धर्म सें चलायमान न होवे, बाल वृद्ध रोगीकी वैयावृत्त करतां धर्मीकों धर्ममें प्रवर्त्ततां सहाय करे, चैत्य जिन प्रतिमाकी अच्छी भक्ति करतां सराग संयम पाले, देशव्रतीपणा पाले, अकाम निर्जरा अज्ञान तप करें, सौच्य सत्यादि सुंदर अंतः करणकी वृत्ति प्रर्त्तावे तो साता वेदनीय कर्म बांधे, इति साता वेदनीयके बंध हेतु कहे १ इनसें विपर्यय प्रवर्त्ते तो असाता वेदनीय बांधे २ इति वेदनीय कर्म स्वरूप ३ . 1 अथ चौथा मोहनीय कर्म तिसके अठावीस भेद है, अनंतानुबंधी क्रोध १ मान २ माया ३ लोभ ४ अप्रत्याख्यान क्रोध ५ मान ६ माया ७ लोभ ८ प्रत्याख्यानावरण क्रोध ९ मान १० माया ११ लोभ १२ संज्वलका क्रोध १३ मान १४ माया १५ लोभ १६ हास्य १७ रति १८ अरति १९ शोक २० भय २१ जुगुप्सा २२ स्त्रीवेद २३ पुरुषवेद २४ नपुंसकवेद २५ सम्यक्त मोहनीय २६ मिश्र मोहनीय २७ मिथ्यात्व मोहनीय २८. अथ इनका स्वरूप लिखते कककक है.. ०००००००,७०,७,७०,००,००,००,00,0009 Jain Education International ७५ 000000000209 For Private & Personal Use Only dedede www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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