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________________ अकालमे स्वाध्याय करे, योगोपधान रहित शास्त्र पढे, अस्वाध्यायमें स्वाध्याय करे, ज्ञानके उपकरण पास हूयां दिसा मात्रा करे, ज्ञानोपकरणकों पग लगावे, ज्ञानोपकरण सहित मैथुन करे, ज्ञानोपकरणकों थूक लगावे, ज्ञानके द्रव्य का नाश करे, नाश करते को मना न करे, इन कामों से ज्ञानावरणीय पंच प्रकारका कर्म बांधे, तिसके उदय क्षयोपशमसें नाना प्रकारकी बुद्धिवाले जीव होते महाव्रत संयम तपसें ज्ञानावरणीय कर्म क्षय करे, तब केवलज्ञानी सर्व वस्तुका जानने वाला होवे, इति प्रथम ज्ञानावरणीय कर्मका संक्षेप मात्र स्वरूप. १ अथ दूसरा दर्शनावरणीय कर्म तिसके नव ९ भेद है. चक्षुदर्शनावरण १ अचक्षुदर्शनावरण २ अवधिदर्शनावरण ३ केवल दर्शनावरण ४ निद्रा ५ निद्रानिद्रा ६ प्रचला ७ प्रचला प्रचला ८ स्त्यानद्ध ९ अब इनका स्वरूप लिखते है. सामान्य रूप करके अर्थात् विशेष रहित वस्तुके जानने की जो आत्माकी शक्ति है तिसकों दर्शन कहते है, तिनमें नेत्रांकी शक्तिकों आवरण करे सो चक्षुदर्शनावरणीय कर्मका भेद है, इसके क्षयोपशमकी विचित्रतासें आंखवाले जीवों की आंख द्वारा विचित्र तरेंकी द्रष्टि प्रवर्त्ते है, इसके क्षयोपशम होने में विचित्र प्रकारके निमित्त है, इति चक्षुदर्शनावरणीय १. नेत्र वर्जके शेष चारों इंद्रियोकों अचक्षुदर्शन कहते है, तिनके सुनने, सूंघने, रस लेने, स्पर्श पिछाननेका जो सामान्य ज्ञान है सो अचक्षुदर्शन है, चारो इंद्रियोंकी शक्तिका आच्छादन करने वाला जो कर्म है तिसको अचक्षुदर्शन कहते है, इसके क्षयोपशम होने में अंतरंग बहिरंग विचित्र प्रकारके निमित्त है, तिन निमित्तों द्वारा इस कर्मका क्षय उपशम जैसा जैसा जीवां के होता है तैसी ऐसी जीवों की चार इंद्रियकी स्व स्व विषयमें शक्ति प्रगट होती है, इति अचक्षुदर्शनावरणी २. अवधिदर्शनावरणीय, और केवलदर्शनावरणीयका स्वरूप शास्त्रसें देख लेनां, क्योंकि सामग्रीके अभावसें ये दोनो दर्शन इस काल क्षेत्र के जीवां कों नही है, एवं दर्शनावरणीयके चार भेद हुए ४ पांचमा भेद निद्रा जिसके उदयसें सुखें जागे सो निद्रा १ जो बहुत हलाने चलाने से जागे सो निद्रा निद्रा २ जो बैठेकों नींद आवे सो प्रचला ३ जो चलते कों आवे सो प्रचला प्रचला ४ जो नींदमें उसके अनेक काम करे नींद में शरीर में बल बहुत होवे है, तिसका नाम स्त्यानद्व निद्रा है ५. पांच इंद्रियां के ज्ञान में हानि करती Jain Education International ७४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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