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________________ वस्तुका खान पानादिसें अधिक अधिकतर मतिज्ञानारवणके क्षायोपशमके निमित्त है, और शील संतोष महाव्रतादि करणी, और पठन करानेवाला विद्यावान् गुरू, और देश काल श्रद्धा, उत्साह, परिश्रमादि ये सर्व मतिज्ञानारवण के क्षयोपशम होने के कारण है. जैसे जैसें जीवां को कारण मिलते है तैसी तैसी जीवांकी बुद्धि होती है. इत्यादि विचित्र प्रकार से मतिज्ञानावरणीका भेद है. इति मतिज्ञानावरणी १. दूसरा श्रुतज्ञानावरण श्रुतज्ञानका आवरण श्रुतज्ञान, तिसकों कहते है, जो गुरु पासों सुनके ज्ञान होवे और जिसके बलसें अन्य जीवांकों कथन करा जावे, तिसके निमित्त पूर्वोक्त मति ज्ञानवाले जानने, क्योंके ये दोनो ज्ञान एक साथ ही उत्पन्न होते है, परं इतना विशेष है, मतिज्ञान वर्तमान विषयिक होता है, और श्रुतज्ञान त्रिकाल विषय होता है, श्रुतज्ञानके चौदह १४ तथा वीस भेद २० है, तिनका स्वरूप कर्मग्रंथसें जानना. पठन पाठनादि जो अक्षरमय वस्तुका ज्ञान है, सो सर्व श्रुतज्ञान है, तिसका आवरण आच्छादन जो है, जिसकी तारतम्यतासें श्रुतज्ञान जीवां कों विचित्र प्रकारका होता है, तिसका नाम श्रुतज्ञानावरणीय है, इसके क्षायोपशमके वेही निमित्त है, जौनसें मतिज्ञान के है, इति श्रुतज्ञानावरण २. तीसरा अवधिज्ञानका आवरण अवधिज्ञानावरणीय ३. ऐसेंही मनः पर्यायज्ञानावरण ४. केवलज्ञानावरण ५. इन पांचों ज्ञानो में सें पिछले तीन ज्ञान इस कालके जीवांकों नही है, सामग्री और साधन के अभाव सें. इस वास्ते इनका स्वरूप नंदी आदि सिद्धांतोसें जानना. ये पांच भेद ज्ञानावरण कर्मके है. यह ज्ञानावरणकर्म जिन कर्तव्यों से बांधता है, अर्थात् उत्पन्न करके अपने पांचों ज्ञान शक्तियांका आवरण कर्ता है सो येह है, मति, श्रुत प्रमुख पांच ज्ञानकी १ तथा ज्ञानवंतकी २ तथा ज्ञानोपकरण पुस्तकादिकी ३ प्रत्यनीकता अर्थात् अनिष्ठपणा प्रतिकुलपणा करे, जैसें ज्ञान और ज्ञानवंतका बुरा होवे तैसें करे १. जिस पांसों पढा होवे तिस गुरु का नाम न बतावे , तथा जानी हुइ वस्तुकों अजानी कहे २, ज्ञानवंत तथा ज्ञानोपकरणका अग्निशास्त्रादिकसें नास करे ३, तथा ज्ञानवंत उपर तथा ज्ञानोपकरण उपर प्रद्वेष अंतरंग अरुची मस्तर ईर्ष्या करे ४, पढनेवालों को अन्न वस्त्र वस्ती देनेका निषेध करें, पढनेवालोंको अन्य काममें लगावे, बातों मे लगावे, पठन विच्छेद करे ५, ज्ञानवंतकी अति अवज्ञा करे, यह हीन जाति वाला है, इत्यादि मर्म प्रगट करने के वचन बोले, कलंक देवे, प्राणांत कष्ठ देवे, तथा आचार्य उपाध्यायकी अविनय मत्सर करे, GORGAGORGUAGSAGAGAGAGAGAGRAGON AGAGEDGOAGOAGOAGOOGGAGEDGOAGOAGOAGO Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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