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________________ जैसें तेलादिसें शरीर चोपडीने कोइ पुरुष नगरमें फिरे, तब तिसके शरीर उपर सूक्ष्म रज पडनेसे तेलादिके संयोगसें परिणामांतर होके मल रूप होके शरीरसें चिप जाती है, तैसेही जीवां के जीवहिंसा १ जुठ २ चोरी ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया ८ लोभ ९ राग १० द्वेष ११ कलह १२ अभ्याख्यान १३ पैशुन १४ परपारिवाद १५ रतिअरति १६ मायामृषा १७ मिथ्यादर्शन शल्य १८ रूप जो अंतः करणके परिणाम है, वे तेलादि चीकास समान है, तिनमें जो पुद्गल जडरूप मिलता है, तिसकों वासना रूप सूक्ष्म कारमण शरीर कहते है, यह शरीर जीव के साथ प्रवाह सें अनादि संयोग संबंध वाला है, इस शरीर में असंखतरेकी पाप पुण्य रूप कर्म प्रकृति समा रही है. इस शरीरको जैनमतमें कर्म कहते है. और सांख्यमतवाले प्रकृति, और वेदांति माया, और नैयायिक वैशेषिक अद्रष्ट कहते. कोइक मतवाले क्रियमाण संचित प्रारब्धरूप भेद करते है, बौद्ध लोक वासना कहते है, विना समझके लोक इन कर्माको ईश्वरकी लीला व कुदरत कहते है, परंतु कोइ मतवाला इन कर्माका यथार्थ स्वरूप नही जानता है, क्योंकि इनके मतमें कोइ सर्वज्ञ नही हुआ है, जो यथार्थ कर्माका स्वरूप कथन करे, इस वास्ते लोक भ्रम अज्ञानके वश होकर अनेक मनमानी उटपटंग जगत कर्तादिककी कल्पना करके, अंधाधुंध पंथ चलाये जाते है, इस वास्ते भव्य जीवां के जानने वास्ते आठ कर्मका किंचित् स्वरूप लिखते है. ज्ञानावरणीय १ दर्शना वरणीय २ वेदनीय ३ मोहनीय ४ आयु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराय ८ इनमे सें प्रथम ज्ञानावरणीय के पांच भेद है, मतिज्ञानावरणीय १ श्रुतज्ञानावरणीय २ अवधिज्ञानावरणीय ३ मनः पर्यायज्ञानावरणीय ४ केवलज्ञानावरणीय ५. तहां पांच इंद्रिय और छठा मन इन छहो द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होवे, तिसका नाम मतिज्ञान है. तिस मतिज्ञानके तीनसौ छत्तीस ३३६ भेद है. वे सर्व कर्मग्रंथकी वृत्तिसें जानने. तीन सर्व ३३६ भेदांका आवरण करनेवाला मतिज्ञानावरण कर्मका भेद है, जिस जीव के आवरण पतला हुआ है. तिस जीवकी बहुत बुद्धि निर्मल है, जैसे जैसे आवरण के पतलेपणेकी तारतम्यता है, तैसें तैसें जीवां मे बुद्धिकी तारतम्यता है. यद्यपि मतिज्ञान मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से होता है, तोभी तिस क्षयोपशमके निमित्त मस्तक, शिर, विशाल मस्तक मे भेज्जा, चरबी, चीकास, मांस, रुधिर, निरोग्य हृदय, दिल निरुपद्रव और सूंठ, ब्राह्मी वच, धृत, दूध, शाकर, प्रमुख अच्छी 1G00000000000000GBAGDAGDAGDAGOAGRAGODN ७२ Pacemenceconda condenonconcess Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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