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________________ मे आवे सो श्रुतज्ञान है, तिसके १४ चौद भेद है । अवधिज्ञान सर्व रुपी वस्तुकों जाने देखे, तिसके ६ भेद है । मनः पर्यवज्ञान अढाइ द्वीपके अंदर सर्वके मन चिंतित अर्थको जाने, देखे, तिसके दोय २ भेद है । केवलज्ञान भूत, भविष्यत्, वर्त्तमानकालकी वस्तु सूक्ष्म बादर रूपी अरूपी व्यवध्यान रहित व्यवधान सहित दूरने झे अंदर बाहिर सर्व वस्तुकों जाने, देखे है, इस ज्ञान के भेद नही है, इन पांचो ज्ञानोका विशेष स्वरुप देखना होवे तो नंदिसूत्र मलयगिरि वृत्ति सहित वांचना वा सुन लेना । प्र. ४२. श्री महावीरस्वामी अनगार होकर जब चलने लगे ते तब तिनके भाइ राजा नंदिवर्धनने जो विलाप करा था सो थोडासा श्लोको में कह दिखलावो . उ. त्वया विना वीर कथं व्रजामो ॥ गृहेऽधुना शून्य वनोपमाने || गोष्टी सुखं केन सहाचरामो । भोक्ष्यामहे केन सहाथ बंधो ||१|| अस्यार्थः || हे वीर तेरे एकलेको छोड़ के हम सूने बन समान अपने घरमें तेरे विना क्युं कर जावेंगे, अर्थात् तेरे विना हमारे राजमहिलमे हमारा मन जानेको नही करता है, तथा हे बंधव तेरे विना एकांत बेठके अपने सुख दुखकी बातां करन रूप गोष्टी किसके साथ मैं करूंगा तथा हे बंधव तेरे विना मैं किसके साथ बैठके भोजन जीमुगा, क्योंके तेरे विना अन्य कोइ मेरा त्रिशलाका जाया भाइ नही है १ सर्वेषु कार्येषु च वीर वीरे || त्यामंत्रणदर्शनतस्तवार्य ॥ प्रेमप्रकर्षादभजाम हर्ष ॥ निराश्रयाश्चाथकमाश्रयामः ||२|| अर्थ || हे आर्य उत्तम सर्व कार्यके विषे वीर वीर ऐसे हम तेरेकों बुलाते थे और हे आर्य तेरे देखनेसें हम बहुत प्रेमसें हर्षकों प्राप्त होते थे, अब हम निराश्रय होगये है, सो किसकों आश्रित होवे, अर्थात् तेरे विना हम किसकों हे वीर हे वीर कहेंगे, और देखके हर्षित होवेंगे ॥२॥ अति प्रियं बांधव दर्शनं ते ।। सुधांजनं भाविक दास्मदक्ष्णोः ॥ नीराग चित्तोपिकदाचिदस्मान् ॥ स्मरिष्यसि प्रौढ गुणाभिराम ॥३॥ अस्यार्थः ॥ हे बांधव तेरा दर्शन मेरेकों अधिक प्रिय है, सो तुमारे दर्शन रूप अमृतांजन हमारी आंखो में फेर कद पडेगा. हे महागुणवान् वीर तूं निराग चित्तवाला है तभी कक हम प्रिय बंधवांकों स्मरण करेंगा ३ इत्यादि विलाप करेथे. प्र. ४३ . श्री महावीरस्वामी दीक्षा लेके जब प्रथम विहार करनें लगे थे तिस अवसरमें शक्रइंद्रनें श्री महावीरजी को क्या बिनती करीथी. Jain Education International ७ १३ For Private & Personal Use Only บริบ www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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