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उ. शक्रइंद्रनें कहाकि हे भगवन् तुमारे पूर्व जन्मोंके बहुत असाता वेदनीयादि कठिन कर्मोके बंधन है तिनके प्रभावसे आपकों छद्मस्थावस्थामें बहुत भारी उपसर्ग होवेंगे जेकर आपकी अनुमति होवे तो मैं तुमारे साथही साथ रहुं और तुमारे सर्व उपसर्ग टालुं अर्थात् दूर करूं.
प्र.४४ तब श्री महावीरजीने इंद्रको क्या उत्तर दीनाथा.
उ. तब श्री महावीरजीने इंद्रकों ऐसे कहा के हे इंद्र यह वात कदापि अतीत कालमें नही हुइ है अपनी नही है और अनागत कालमेभी नही होवेगी के किसीनी देवेंद्र असुरेंद्रादिके साहाय्यसें तीर्थंकर कर्मक्षय करके केवलज्ञान उत्पन्न करते है, किंतु सर्व तीर्थंकर अपने २ प्राक्रमसें केवलज्ञान उत्पन्न करते है इस वास्ते हमभी दूसरेकी साहाय्य विना अपने ही प्राक्रमसें केवलज्ञान उत्पन्न करेंगे ।
प्र.४५. क्या श्री महावीरजीकी सेवामें इंद्रादि देवते रहते थे ।
उ. छद्मस्थावस्थामें तो एक सिद्धार्थ नामा देवतां इंद्रकी आज्ञासें मरणांत कष्टदूर करने वास्ते सदा साथ रहता था, और इंद्रादि देवते किसि किसि अवसरमें वंदना करने सुखसाता पूछने वास्ते और उपसर्ग निवारण वास्ते आते थे और केवलज्ञान उत्पन्न हुआ पीछेतो सदाही देवते सेवामे हाजर रहते थे।
प्र.४६. श्री महावीरजीने दीक्षा लीया पीने क्या नियम धारण करा
था।
उ. यावत् छद्मस्थ रहुं तावत् कोइ परीषह उपसर्ग मुझकों होवे ते सर्व दीनता रहित अन्य जनकी साहायसे रहित सहन करूं. जिस, स्थान मे रहने से तिस मकानवालेकों अप्रीति उत्पन्न होवे तो तहां नही रहेना १ सदा ही कायोत्सर्ग अर्थात् सदा खडा होके दोनो बाहां शरीरके अनलगती हुइ हैठकों लांबी करके पगोंमे चार अंगुल अंतर रखके थोडासा मस्तक नीचा नमावी एक किसी जीवरहित वस्तु उपर द्रष्टि लगाके खडा रहुंगा २, गृहस्थका विनय नहीं करूंगा ३, मौन धारके रहुंगा ४, हाथमेही लेके भोजन करूंगा, पात्रमे नही ५. ये अभिग्रह नियम धारण करे थे.
प्र.४७ श्री महावीरस्वामीजीने छद्मस्थ काल मे कैसे कैसे परीषह
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