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________________ रूप करण जरा पलित नाशक इत्यादि बहु प्रभाववाली उषधीयां पत्र फलादि करके संयुक्त है, पिछले सर्व वनोसें यह प्रधान वन है ||५|| रोग विषादि दूर करे, मनचिंतित | इस वन समान चारित्र धर्मभी पुलाक बकुश कुशील निर्ग्रथ स्नातकादि विचित्र भेदमय है, विराधक श्रावक साधुयोंका धर्म तीसरे मिथ्यात्व धर्ममें ग्रह करनेसें इस धर्ममें अविराधक यति धर्मवाले जाननें, तिनकों जघन्य सौधर्म देवलोकके सुख रूप फल है. आराधिक श्रावक धर्मवाले से अधिक और बारा कल्प देवलोक, नव ग्रैवेयकादि मध्यम सुख और उत्कृष्टतो अनुत्तर विमानके सुख संसारिक और संसारातीत मोक्ष फल देते है, इस वास्ते ते यह धर्म सर्व शक्तिसें उत्तरोत्तर अधिक अधिक आराधना चाहिये, यह सर्व धर्मासें उत्तम धर्म है, यह कथन उपदेश रत्नाकरसें किंचि लिखा है || इति पांचमा धर्म भेद ||५|| प्र.१६१. जो जैनमतमें राजे जैनधर्मी होते होवेंगे, वे जैनधर्म क्योंकर पाल सक्ते होवेंगे, क्योंकि जैनधर्म राज्यधर्मका विरोधी हमकों मालुम होता है. उ. गृहस्थावस्थाका जैनधर्म राज्यधर्म (राज्यनीति) का विरोधी नही है. क्योंकि राज्यधर्म चौर यार खूनी असत्यभाषी प्रमुखाकों कायदे मूजब दंड देना है. इस राज्य नीतिका जैनराजाके प्रथम स्थूल जीवहिंसा रूप व्रतका विरोध नही है, क्योंकि प्रथम व्रतमें निरपराधिकों नही मारना ऐसा त्याग है, और चौरार खूनी असत्यभाषी आदिक अन्याय करनेवालेतो राजाके अपराधी है, इस वास्ते तिनके यथार्थ दंड देने से जैन धर्मी राजाका प्रथम व्रत भंग नही होता है, इसीतरे अपने अपराधि राजा के साथ लडाइ करने से भी व्रत भंग नही होता है, चेटक महाराज संप्रति कुमारपालादिवत्, और जैनधर्मी राजे बारांव्रत रूप गृहस्थका धर्म बहुत अच्छी तरेसें पालते थे, जैसे राजा कुमारपालने पाले. प्र.१६२. कुमारपाल राजाने बारांव्रत किस तरेंके करे, और पाले थे. १०९ exercendente Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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