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________________ सम्यग् द्रष्टीकों ये सर्व त्यागने योग्य है ।। इति तीसरा धर्म भेद ||३|| एक धर्म नृपवन समान | इस वन समान श्राद्ध (श्रावक) धर्म सम्यक्त्व श्रावक धर्म है राजेके वनमें | पर्वक बारांव्रताकी अपेक्षा तेरासौकरोड अधिक अंब , जंबू राजादनादि भेद होने से विचित्र प्रकारका सम्यग् गुरु समीपे जघन्य वृक्ष है केला , नाली- अंगीकार करनेसें परिगृहीत है, अज्ञान मए केरसोपारी आदि मध्यम लोकिधर्मसें अधिक है, और अतिचार विषय माधवी लता तमाला एला, | कषायादि चौर श्वापदादिकोंसे सुरक्षित है, और लवंग चंदना गुरुतगरादय गुरु उपदेश आगाभ्यासादि करके सदा सुसिंच्य उत्तम चंपक राजचंपक | मान है, सौ धर्मदेवलोक के सुख जघन्य फल जाति पाढलादि पूल | है, सुलभबोधि होनेसे और निश्चित जलदी तरुविचित्र है, ये सर्व | सिद्धि सुखांके देनेवाले होने से और मिथ्यात्वीके गिरिवनके वृक्षों से सींचे, सुखांसें बहुत सुभग आनंदादि श्रावकोंकीतरें पाले हुए होने से अधिक देते है, और उत्कर्षसें तो जीर्ण सेठादिकी तरें फल, पत्र पुष्पवाले है,सदा । बारमे अच्युत देवलोकके सुख देते है || इस सरस बह मोले फलादि देते | बास्ते बारांव्रत रूप श्राद्ध (श्रावक) धर्म यत्नसें है ॥४॥ अंगीकार गृहस्थ लोकोने करना, और अधिक अधिक शुद्धभावोंसें पालनां आराधनां चाहिये ।। इति चौथा धर्म भेद ||४|| एक धर्म देवताके वन समान साधु धर्म है, देवता के वनमें देवतायोंकी तारताम्यतासें ऋद्धि मानोके क्रीडा करने के नंदनवनादिमेंभी राजाके वनवत् जघन्य , मध्यम, उत्तम वृक्ष होते है, सर्वऋतु के फलवान् वृक्षों के होनेसें और देवताके प्रभाव से सर्व WH0GBAGHAGHAGDAGDAGOGAGHAAGAGARI RAAAAGAGDAGD0000000000000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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