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________________ है, अथवा सो पूरा करता है ऐसा है, तिससे बहुत करके ऐसे बतलाता है के दीनी हुइ वस्तु रजु करने में आइथी, अर्थात् जिस आचार्यका नाम आगे आवेगा तिसकी इच्छासें अर्पण करने में आइथी, अथवा तिससें सो पूरी करनेमें आइथी, अर्थात् पवित्र करने में आइथी. गणतो, कुलतो इत्यादि पांचमी विभक्ति के रूप वियोजक अर्थमें लेने चाहीये, स्येइजरका संस्कृतकी वाक्य रचनाका पुस्तक ११६ । १ देखो । इति डाक्तर बूलर. अथ तीसरा लेख || सिद्धं महाराजस्य कनिश्कस्य राज्ये संवतसरे नवमें ।।९।। मासे प्रथ १ दिवसे ५ अस्यां पूर्वाये कोटियतो, गणतो, वाणियतो, कुलतो, वइरीतो, साखातो वाचकस्य नागनंदि सनिर्वरतनं ब्रह्मधूतुये भद्दिमितस कुटुंबिनिये विकटाये श्री वर्द्धमानस्य प्रतिमा कारिता सर्व सत्वानं हित सुखाये, यह लेख श्री महावीरकी प्रतिमा उपर है ।। इसका तरजुमा नीचे लिखते है ।। फतेह महाराजा कनिश्यके राज्यमें ९ नवमें वर्षमें का १ पहिले महीनेमें मिति ५ पांचमीमें ब्रह्माकी बेटी और भद्दिमित (भदिमित्र) की स्त्री विकटा नामकीने सर्व जीवां के कल्याण तथा सुखके वास्ते कीर्तिमान वर्द्धमानकी प्रतिमा करवाइ है, यह प्रतिमा कोटिक गण (गच्छ) का वाणिज कुलका और वइरी शाखका आचार्य नागनंदिकी निवर्तन है, (प्रतिष्टित है), अब जो हम कल्पसूत्र तर्फ नजर करीये तो तिस मूल प्रतके पत्रे | ९१-९२ । इस. वी. इ. वाल्युम (पुस्तक) २२ पत्रे २९२, हमकों मालम होता है कि सुठिय वा सुस्थित नामे आचार्य श्री महावीरके आठमें पदके अधिकारीने कोटिक नामे गए (गच्छ) स्थापन करा था, तिसके विभाग रूप चार शाखा तथा चार कुल हुए, जिसकी तीसरी शाखा वइरीथी और तीसरा वाणिज नामे कुल था, यह प्रगट है कि गण कुल तथा शाखा के नाम मथूरांके लेखों मे जो लिखे है वे कल्पसूत्रके साथ मिलते आते है, कोटिय कुछक कोडीयका पुराना रूप है, परंतु इस बात की नकल लेनी रसिक है कि वइरी शाखा सीरीकाभत्ती (स्त्रीकाभक्ति) जो नंबर ६ के लेख में लिखी हइ है तिसके भागका कल्पसूत्रके जानने में नही था, ' अर्थात् जब कल्पसूत्र हुआ था तिस समय में सो भाग नही था. यह खाली स्थान ऐसा है कि जो मुहकी दंत कथा (परंपरायसें चला आया कथन) से लिखी हुइ यादगीरीसें मालुम होता है. इति डाक्तर बूलर ।। अथ चौथा लेख || संवत्सरे ९० व...स्य कुटुबनि. वदानस्य - - MOR6A6A6A6A6AGAGO00000000000000 J enderende onderderderderder Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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