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________________ वोधुय...क...गणता...वहुकतो , कालातो, मझमातो, शाखाता...सनिकाय अतिगालाए थवानि...सिद्ध=स ५ हे १ दि १०+२ अस्य पूर्वा येकोटो.. इस लेखकी लीनी हुइ नकल मेरे वसमे नही है, इस वास्ते इसका पूर्ण रूप मै स्थापन नही कर सकता हूं, परंतु पहली पंक्तिके एक टुकडि के देखने से ऐसा अनुमान हो सकता है के यह अर्पण करनेका काम एक स्त्रीसें हुआ था, ते स्त्री एक पुरुषकी वहु (कुटुंबनी) तरीके और दूसरे के बेटेकी बहु (वधु) तरीके लिखने में आइथी ।। दूसरी पंक्तिका प्रथम सुधारे साथ लेख नीचे लिखे मजब होता है ।। कोटीयतो गणतो (प्रश्न) वाहनकतो कुलतो मज्जमातो साखातो...सनीकाये के समाजमें कोटीय गच्छके प्रभवाहनकी मध्यम शाखा में के कोटीय और प्रश्नवाहनकये दो नाम होवेंगे, ऐसें मुझकों निसंदेह मालुम होता है, क्योंकि इस लेख की खाली जगा तिस पूर्वोक्त शब्द लिखने से बराबर पूरी हो जाती है, और दूसरा कारण यह है कि कल्पसूत्र एस.वी.इ. पत्र-२९३ मेमें मध्यम शाखा विषयक हकीकतभी पूर्वोक्तही सूचन करती है, यह कल्पसूत्र अपने को ऐसे जनाता है कि सुस्थित और सुप्रतिबद्धका दूसरा शिष्य प्रीयग्रंथ स्थविरे मध्यमा शाखा स्थापन करी थी, हमकों इन लेखोपरसे मालुम होता है कि प्रोफेसर जेकूबीका करा हुआ गण, कुल तथा शाखायोंकी संज्ञाका खुलासा खरा है, और प्रथम संज्ञा शाला बताती है, दूसरी आचार्योकी पंक्ति और तीजी पंक्तिमें से अलग हो गइ, शाखा बतावे है, तिससें ऐसा सिद्ध होता है, कल्पसूत्रमें गण (गच्छ) तथा कुल जणाया विना जो शाखायोंका नाम लिखता है, सो शाखा इस उपरल्ये पिछले गणके ताबेकी होनी चाहिये, और तिसकी उत्पत्ति तिस गच्छके एक कुलमें से हुइ होइ चाहिये, इस वास्ते मध्यम शाखा निसंदेह कौटिक गच्छमें समाइ हुइथी, और तिसके एक कुलमे सें फटी हुई बांकी शाखाथी के जिसके बीचका चौथा कुल प्रश्नवाहनक अर्थात् पणहवाहणय कहलाता है, इस अनुमान की सत्यता करने वाला राजशेखर अपने रचे प्रबंध कोशमें जो कोश तिनोंने विक्रम संवत् १४०५ में रचा है, तिसकी समाप्तिमें अपनी धर्म संबंधी उलाद विषयिक लिखी हुइ हकीकतसें साबूत होती है, सो अपनेकों जनाता है कि मै कोटिक गण प्रश्नवाहन कुल मध्यम शाखा हर्षपुरीय गच्छ और मलधारी संतान, जो मलधारी नाम अभयदेव सूरिकों विरद मिला था, तिसमें सेंहं ||१, २, के पिछले शब्दोंको सुधारे करने में मै समर्थ नही हं, परंतु इतना तो कह सकता हं के यह बक्षीस स्तंभोकी GOAGRAGUAGEAGUAGEAGUAGAGAG00008GORNS DOGAGAGEDGEAGOOGOAGORGBAGDAGOGOAGO Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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