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________________ (८) इन्द्रियों के बीच झगड़ा पड़ जाए, तब न्यायाधीश कौन ? जैसे आँख देखती है कि चाँदी है और स्पर्श कहता है कि कलई । दोनों को सोच कर निश्चित निर्णय देने वाली आत्मा है; हाथ या बुद्धि नहीं; क्योंकि ये तो साधन है । आँख आम का हरा रंग देख कर खट्टेपन की कल्पना करती है, परन्तु आत्मा जीभ के पास परीक्षा कराती है, और मीठा स्वाद लगते ही आँख की कल्पना को असत्य सिद्ध करती है। बिना आत्मा के बिल्कुल भिन्न भिन्न और अपने २ स्वतन्त्र विषय वाली आँख और जीभ दोनो परस्पर किस प्रकार समझौता कर सके ? दोनों में से कौन माने कि 'आम को मैने रंग से खट्टा माना परन्तु रस से मीठी अनुभूत किया?' यहाँ 'मैं' के रूप में आत्मा को माने ही छुटकारा मिल सकता है । (९) शरीर यह घर और पैसे की भाँति ममत्व करने की वस्तु है, तो शरीर का ममत्व करने वाला कौन है ? घर, पैसे, तिजोरी, फर्नीचर आदि वस्तुएँ स्वयं ही अपने पर ममत्व नहीं करते । ममत्व करने वाला कोई भानहीन पागल है । इस प्रकार 'मेरा शरीर थका हुआ है, अभी तुम्हारा आदिष्ट चक्कर खा नहीं सकता' ऐसा देह पर ममत्व रखने वाली आत्मा है । अब ममत्व अभ्यास से आता है तो नवजात शिशु को स्वशरीर का ममत्व कैसे हुआ ? यहाँ तो इसका अभी जन्म होने से कोई अभ्यास नहीं । तब फिर मानना ही पड़ता है कि पूर्व जन्म के अभ्यास से यहाँ जन्म से ही ममत्व होता है । इस प्रकार दो जन्मों के बीच संलग्न एक स्वतन्त्र आत्मा सिद्ध होती है । ( १० ) मानसिक सुख-दुःख का अनुभव करने वाला कौन ? पक्वान्न जीमने बैठे और वहाँ हजारों रुपयों की हानि का तार प्राप्त हुआ; तब फौरन दुःखी कौन हुआ? बेचैनी का अनुभव किसने किया ? शरीर में तो मीठे पक्वान्न की मस्ती कायम है, और शरीर पर कोई आघात हुआ नहीं। मानना होगा आत्मा बेचैन हुई । इसी तरह सड़ी हुई पीड़ाकारी अंगुली कटवाई, वहाँ शरीर सुखी हुआ ऐसा लगता है; क्योंकि आगे सड़न और पीड़ा होने से बचे । परन्तु जीवन भर 'हाय ! मेरी अंगुली गई' इस प्रकार दुःखी कौन होता है तो उत्तर यही करना होगा कि आत्मा । ( ११ ) माता पिता से बच्चे का शरीर बना; फिर भी जहाँ बच्चे में उनकी अपेक्षा विलक्षण गुण और स्वभाव दिखाई पड़ते हैं, वहाँ ऐसा क्यो ? स्वभाव से माता क्रोधिनी और पुत्र शांत ! ऐसा क्यों ? तो मानना पड़ता है कि दोनों के शरीर में पूर्वभव के संस्कार लेकर आई हुई दो स्वतन्त्र आत्माओं ने ये शरीर धारण किये हैं, जिससे दोनों के खाते ( हिसाब-किताब ) अलग अलग चलते हैं 1 (१२) कुम्हार जानता है कि कोमल मिट्टी से घड़ा अच्छा बनता है, तभी स्व Jain Education International १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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