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________________ क्यों बनाया ? चलता हुआ व्यक्ति आगे देख सके पर पीछे न देख सके, ऐसी अधूरी आँख क्यों रक्खी ? किसी का रूपवान् और किसी का बेडौल, किसी का स्वस्थ और किसी का अस्वस्थ, किसी को देखने में समर्थ और किसी का अंधा ऐसा शरीर क्यों बनाया? यदि कहें की 'अपने अपने कर्मानुसार', तो प्रश्न उठता है कि यह 'अपने' अर्थात् किसके? अगर जीव का कहते हो तो जीव सिद्ध हो गया ! (४) शरीर, इन्द्रियाँ और गात्र भोग्य हैं, तो कोई भोक्ता भी चाहिए । सुन्दर वस्त्र की भाँति सुंदर देह पर प्रसन्न होने वाला कौन ? दो हाथ और दो पाँव नोकर जैसे है। इनके पास काम कौन लेता है ? उत्तर मिलता है राजा आत्माराम । महल में राजा होता है वहीं तक सभी स्थान ताजे हैं, राजा चले और स्वामी के बिना घर सूना । जीव रूपी माली के बिना देह बगीचा खड़ा खड़ा सूख कर एक दिन उजाड़ हो जाता है। आत्मा के बिना कौन सम्हाले और कौन भोगे ? (५) इन्दियाँ करण हैं, अतः इनका अधिष्ठाता यानी इनसे काम लेने वाला कौन ? तो कहते हैं आत्मा । चिमटा-सडासी स्वयं काम नहीं करती, उससे काम लेने वाला व्यक्ति होता है। (६) इन्द्रियाँ और गात्रादि किसी के आदेश के अनुसार काम करते हैं, तो स्वतन्त्र आदेशक कौन ? उत्तर स्पष्ट है - आत्मा । यही स्वेच्छा से आँख की पुतली को नचाती है, हाथ पाँव चलाती है, फिर इच्छानुसार स्थिर भी रहती है आदि । शरीर को आदेशक नहीं मान सकते, क्योंकि शरीर स्वयं तो इन सब का संयुक्त रूप है, कोई एक स्वतन्त्र व्यक्ति नहीं । आदेशक के रूप में हम मन को भी नहीं कह सकते; क्योंकि वह भी परतंत्र है। उसे कड़वी औषधि रुचिकर नहीं लगती फिर भी पीनी पड़ती है। कौन पिलाता है ? बिमारी में भी मिठाई-कुपथ्य खाने की ओर मन लालायित होता है, परन्तु उसे रोकता कौन है ? बस यही आत्मा । आत्मा स्वयं स्वामी-प्रोप्राइटर है, मन मैनेजर है। स्वामी की प्रगाढ़ रुचि के अनुसार मन तरंग करता है, इन्द्रियों को प्रेरित करता है; हिंसा-अहिंसादि में प्रवृत्त करता है। आत्मा के इस महा मूल्यवान् स्वातंत्र्य के शुद्ध मोड़ और इन्द्रिय-मन के शुभ प्रवर्तन में जो सदुपयोग करता है वही भवसागर से पार उतरता है। (७) शरीर तथा गात्रादि प्रवृत्ति का नियामक-निरोधक कौन ? जैसे आती हुई छींक को रोकना, देखने में लीन आँख को बन्द करना, चलते चलने बीच में पांवों का रुकना, कहीं लघुशंका से निवृत्त होते विशेष भय में अटका देना, इसी प्रकार क्रोध से जो आक्रोश वचन बोले जाते उनसे बचाना, आदि सब का नियन्त्रण करने वाला कौन ? तो मिलता है आत्मा ही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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