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संदेह, निर्णय, तर्क, सुख, दु:ख आदि जो प्रत्यक्ष सिद्ध अनुभूत होते हैं यह आत्मा का ही प्रत्यक्ष अनुभव है क्योंकि आत्मा ही तन्मय है, जब कि देह तन्मय नहीं है।
(३) 'मैं करता हूं' मैंने किया, में करूंगा, मैं बोलती हूं, मैं बोला, मैं बोलूंगा आदि त्रैकालिक अनुभव में 'मैं' का अनुभव आत्मा का ही प्रत्यक्ष अनुभव है, क्योंकि तीनों ही काल में आत्मा तदवस्थ है जब कि शरीर परिवर्तित होता है। 'खाऊं तो मैं बिगडूं', नहीं किन्तु 'खाऊं तो मेरा शरीर बिगडे,' - ऐसा अनुभव होता है; इससे 'मैं' कर के आत्मा ही सिद्ध होती है ।
(४) स्वप्न में अनुभव कौन करता है ? आत्मा ही ? गहन अंधकार में जहां पर अपना शरीर भी दिखाई नहीं देता, वहाँ 'मैं हूं' ऐसा अबाधित प्रत्यक्ष अनुभव आत्मा का ही है, शरीर का नहीं ।।
(५) शरीर का कभी अकस्मात् रंग पलट जाने पर या यकायक निर्बलता बढ़ जाने पर संदेह होता है 'क्या यह मेरा शरीर' परन्तु कभी भी 'मैं' के संबंध में अंधकार में भी संदेह नहीं होता कि 'मै हूं अथवा नहीं' । 'मैं' का तो सदा निर्णय ही रहता है । यह 'मैं' का निर्णय आत्मा का ही निर्णय है।
(६) गुण के प्रत्यक्ष से गुणी भी प्रत्यक्ष कहलाता है । जैसे-पर्दे के छेद में से घड़े का रूप दीखने पर घड़ा दिखाई देता है ऐसा व्यवहार है। इसी प्रकार स्मरण, जिज्ञासा, बोध, सुख आदि आत्मा के गुणों के प्रत्यक्ष से आत्मा ही मानी जाती हैं, क्योंकि गुण गुणीस्वरूप है ।
प्रश्न - स्मरणादि गुण तो शरीर के ही कहे जा सकते हैं न? आत्मा मानने की क्या आवश्यकता है।
उत्तर - शरीर मूर्त है, चक्षु का विषय है और जड़ है। इसके गुण गौरता, श्यामता, कृषता, स्थूलता इत्यादि होते हैं; परन्तु स्मरणादि नहीं, जो कि अमूर्त है-चैतन्यरूप है। शक्कर मिश्रित पानी में जो मीठापन लगता है वह पानी का नहीं परन्तु शक्कर का है। वैसे इसी शरीर में अनुभूत होने वाले ज्ञानसुखादि गुण शरीर के नहीं परन्तु आत्मा के होते हैं । गुण-गुणी सम्बन्ध अनुरूप का ही हो सकता है, जैसे-राख का गुण चिकनाहट नहीं परन्तु रुक्षता है । इस प्रकार स्मरणादि गुण आत्मा के हैं।
इस प्रकार आत्मा आंशिक रूप से प्रत्यक्ष है। शेष आत्मा का सर्वांगीण प्रत्यक्ष तो सर्वज्ञ ही कर सकते हैं और सर्वज्ञ बनने के लिए तपस्यादि विधियों का आचरण करना चाहिये । दूध में निहित घी भी, दूध का दहीं, मक्खन, तावनादि विधियां करने से ही प्रत्यक्ष होता है।
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