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इस प्रकार हम देखते हैं कि ( १ ) सर्वज्ञ के केवलज्ञान- प्रत्यक्ष से, (२) संदेहादि स्फुरण के स्वप्रत्यक्ष से, (३) त्रैकालिक प्रत्यक्ष में 'मैं' के प्रत्यक्ष भास से, ( ४ ) स्वप्न में 'मैं हूं' के अनुभव से, (५) 'मैं' के संदेह के अभाव से, तथा (६) गुण के प्रत्यक्ष से आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध होती है ।
आत्मसिद्धि के अनुमान प्रमाण
प्रश्न - संशय, ऊहापोह, निर्णय आदि जो संवेदन हृदय में स्फुरित होते है यह आत्मा के संबंध में प्रत्यक्ष प्रमाण है तब फिर अनुमान से प्रमाणित करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर - जो शून्यवादी जैसा कहते हैं कि ये सब संशय, निर्णय आदि स्फुरित होने वाले संवेदन मिथ्या है, असत् है, तो इस हिसाब से तो आत्मा भी असत् सिद्ध होती है । अतः अनुमान से आत्मा की सिद्धि करना आवश्यक है I
ये अनुमान इस प्रकार हैं:
(१) किसी भी शरीर में भिन्न आत्मा है यह सिद्ध करने के लिए अपनी तरह दूसरों की प्रवृत्ति निवृत्ति पर से ऐसा अनुमान होता हैं कि इनके शरीर को प्रवृत्त - निवृत्त बनाने वाली आत्मा इसके अन्दर हैं। जिस प्रकार घोड़े से गाड़ी चलती है, उसी प्रकार शरीर भी हलन - चलन - भाषणादि में प्रवृत्ति और उनसे निवृत्ति आत्मा से ही करता है और मृत्यु होने पर शरीर में से आत्मा निकल जाने पर अश्व विहीन गाड़ी जैसे शरीर में स्वतः जरा भी इष्ट प्रवृत्ति द्वारा संचा या अनिष्ट निवृत्ति नहीं होती । यह है अनुमान प्रयोग- शरीर ऐसे किसी के लित है जो कि शरीर में विद्यमान होने तक ही शरीर प्रवृत्तनिवृत्त होता रहता है । जैसे अश्व संचालित रथ ।
प्रश्न - जैसे सर्प स्वयं ही संकुचित हो जाता है वैसे ही शरीर स्वयं ही प्रवृत्तिनिवृत्ति करने में समर्थ नहीं है क्या ? इसमें आत्मा की आवश्यकता है ।
उत्तर - सर्प भी जीवित अवस्था में ही संकुचित हो सकता है, न कि मृतावस्था में । इससे पता चलता है कि वहाँ भी अंदर बैठी हुई आत्मा ही काम कर रही है । मन चाहे तब दृष्टि चलाना, दृष्टि को रोकना, छींकना, छींक रोकना, हाथ पांव हिलाना - रोकना आदि की शक्ति जड़ शरीर की कैसे कही जा सकती है ? प्रवर्तक- निवर्तक तो आत्मा ही है ।
यहाँ पहिले बताया गया है कि अनुमान करना हो तो साध्य हेतु का व्याप्तिसंबंध कभी पूर्व में गृहीत-ज्ञात किया हुआ होना चाहिए । परन्तु यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है कि व्याप्ति-संबंध दो प्रकार से होता है : ( १ ) अन्वय व्याप्ति, व
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