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ये मुख्य ११ ब्राह्मण और इनके ४४०० विद्यार्थी यज्ञ समारंभ में भाग ले रहे थे । वहाँ लोगों के गमनागमन और बातचीत से उन्हें पता चला कि कोई सर्वज्ञ आये हैं ।
इन्द्रभूति का अभिमान :- दूसरी ओर आकाश में से देवताओं को नीचे उतरते देखते हैं । ब्राह्मण प्रसन्नता से फूले नहीं समाते हैं । 'अहा ! देखो, अपने यज्ञ की कैसी अद्भुत महिमा है कि देवता भी खिंचे चले आ रहे हैं ।' परन्तु जब ये देवता यज्ञ मंडप छोड़कर आगे बढ़ गए तब निराश इन्द्रभूति गौतम सोचते है : 'अरे ! ये अज्ञानी देवता ! किस भ्रम में पड गए ? महान् गंगा- तीर्थ के पानी को छोड़कर कौए की भाँति गड्ढे व गंदे पानी में ये कहां लीन हो रहे हैं । यह नया सर्वज्ञ फिर और कौन हुआ है ?' यहाँ विशेषता तो देखो : 'कौन नया सर्वज्ञ हुआ है ?' इतना भी जिसे पता नहीं, वह इन्द्रभूति गौतम अपने आप को सर्वज्ञ मानता है ! इतना ही नहीं, परन्तु अच्छी वस्तु भी जब अपने लिए लाभकारी न हुई अत: अंगूर को खट्टे बताने वाली लोमड़ी की भाँति वह इनकी निन्दा तक करने को तैयार होता है। ईर्ष्या कैसी भयंकर वस्तु है । इन्द्रभूति सोचते हैं 'अहो ! पाखंडियों से मूर्ख तो छलित होते ही हैं, परन्तु ये तो देवता भी, जो विबुध कहलाते हैं ठगे गए हैं। पर नहीं, जैसा यह सर्वज्ञ हैं वैसे ही ये देव भी होंगे ।' ठीक ही कहा है : 'बाज कबूतर उड़त हैं बाज कबूतर संग'। ऐसा कहकर मन को समझाते तो हैं, परन्तु नये सर्वज्ञ को भूल नहीं सकते। अपने सिवाय अन्य कोई सर्वज्ञ कहलाये यह सहन नहीं होता ।
हृदयस्थ विद्या का यह युग था । परिश्रम से ऐसी २ विद्याएं इन्होंने प्राप्त की थीं कि अच्छे अच्छे विद्वानों को इन्होंने पराजित किया था । इतना होते हुए भी मिथ्यात्व की विडंबना ऐसी है कि ये आगबबूला होकर सोच रहे हैं 'जगत में सूर्य एक ही होता है, म्यान में तलवार एक ही रहती है, गुफा में एक ही सिंह रहता है; इसी प्रकार जगत में सर्वज्ञ भी एक ही होता है; दूसरे सर्वज्ञ को मैं चलाने वाला नहीं' । वाह अमर्ष ! वाह असहिष्णुता ! ऐसा नहीं होता कि भले वही सर्वज्ञ रहे, मैं नहीं । इसी प्रकार इनके साथी अन्य दस ब्राह्मण अपने आप को सर्वज्ञ मानते हैं इसका भी कुछ नहीं ! क्यों ऐसा ? ये दसों इन्द्रभूति को बड़ा मानते थे, पूज्य गिनते थे, उन्हें आगे रखकर चलते थे । तो मनुष्य को मान की ही पिपासा है न ? मान-सम्मान के परवश होने के पश्चात् मान न मिलने पर सामने वाले में अनंत गुण हो तब भी आनंद नहीं, मित्रता नहीं, परन्तु ईर्ष्या और द्वेष !
प्रभु की लोक प्रशंसा : इन्द्रभूति द्वारा वाद की तैयारी :- लोग सर्वज्ञ श्री महावीर देव को नमन-वंदन कर लौट रहे हैं । इन्द्रभूति उनसे पूछते हैं, 'क्यों देख
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