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आए उन सर्वज्ञ को ? कैसा है वह ?' परन्तु यहाँ तो अतिशय सुन्दर अनुत्तरवासी देवताओं की अपेक्षा भी प्रभु का अनंतानंत-गुना सुन्दर रूप, देव-दुंदुभि, पुष्पवृष्टि, छत्र, भामंडल आदि आठ प्रतिहार्य, वाणी के ३५ गुण, यह सब भव्य शोभा लोग देख आए हैं, अतः हृदय में उनके प्रति मुग्धता, आकर्षण और प्रमोद अपरंपार है, फिर उत्तर में अभाव किस बात का हो ? लोग कहते हैं 'यदि तीनों लोक इन सर्वज्ञ प्रभु के गुण गिनने बैठ जाएं, परार्द्ध से भी परे गणना चली जाय और आयु का अन्त ही न हो तभी प्रभु के सभी गुणों की गणना हो सकती है ।' इन्द्रभूति यह कैसे सुन सकते हैं ? वे चौंक उठे और बोले 'वाह ! इसने तो लोगों को भी ठग लिया है। अब तो मैं एक पल भर भी नहीं रुक सकता । अभी ही जाता हूँ और उसे वाद में परास्त कर उसके मद और छल को चूर कर देता हूँ। जिस वायु ने बड़े बड़े हाथियों को उछाल फेंका, उसके लिए एक रुई के फाये को उड़ाना कौन सी बड़ी बात है ? पता नहीं सारे तिलों का तेल निकालते यह एक तिल कहाँ से शेष रह गया? वादियों को जीत कर मैंने वादियों का दुष्काल कर दिया तब फिर यह वादी किस ग्राम में छिपा रह गया ? कुछ भी हो, मुझे जाना ही पड़ेगा' ।
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इस प्रकार सोच कर चलने की तैयारी करते हैं, पर इस बात का पता अग्निभूति को चल जाता है, और वे कहते हैं, 'भाई, आज तुम्हारे जाने की क्या आवश्यकता है ? एक कमल को उखाड़ने के लिए क्या ऐरावत हाथी की आवश्यकता होती है ? आप बैठिये, मैं जाकर जीत आता हूँ ।' इन्द्रभूति कहते हैं - 'अरे तू तो क्या, यह मेरा एक विद्यार्थी भी उसे जीत सकता है, परन्तु मुझ से यह दूसरे सर्वज्ञ का नाम सहन नहीं होता, इसीलिए मैं जाता हूँ । उसे पराजित किये बिना अब रहा नहीं जा सकता । सती सौ वर्ष शील पालन करे परन्तु एक बार भी शील भंग करे तो वह सती नहीं । इस प्रकार यदि एक आधा भी वादी मुझ से पराजित हुए बिना रह जाय तो मेरी मान हानि हो जाय ।'
बस इन्द्रभूति तैयार हुए। बारह तिलक किये, सुन्दर पीताम्बर तथा स्वर्ण की जनेऊ धारण की। पीछे पांच सौ विद्यार्थी - परिवार चल रहा है । किसी के हाथ में कमंडल है, कोई दूर्वाघास लिये है तो किसी के पास पुस्तकें । इन्द्रभूति के मन में उथल पुथल मच रही है कि 'मैंने कौन सी विद्या प्राप्त नहीं की है ? व्याकरण, साहित्य, न्याय, वेद, ज्योतिष सभी में मैने पर्याप्त परिश्रम किया है । लाट देश के वादी तो बिचारे पता नहीं कहाँ भागे, द्राविड़ के वादी तो लज्जित ही हो गए। तिलंग वाले तो संकुचित होकर तिल जैसे हो गए तथा गुर्जर देश वाले तो जर्जरित ही हो गए । ' यह सब क्या है ? अपनी स्थिति की आलोचना और कोई ऐसी पूर्व भूमिका, कि
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