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70 : आनंदघन
इस तरह से इन दोनों ने सच्चे आत्मज्ञानी की जो पहचान दी है वह समझने जैसी है । सच्चा साधु कपड़ो से नहीं, गुणों से पहचाना जाता है । स्वांग सज लेने से कोई साधू नहीं बन जाता । वेश बदल लेने से आत्मा की पहचान नहीं मिल जाती । ऐसे वेशधारी (स्वाँगी) या बाह्याचार में लीन लोगों के लिए अखा कहते हैं :
“आतम समज्यो ते नर जती शुं थयुं धोणां भगवां वती ? बोडे, त्रोडे, जोडे वाण, ए तों सर्व उपल्यो जंजाण ।”
आनंदघनजी इस तरह से, इसी भाव को प्रकट करते हुऐ कहते हैं कि सच्चा आत्मज्ञानी ही श्रमण कहलाता है; अन्य सभी तो वेशाधारी (स्वाँगी) ही माने जायेंगे । जो चीज को यथार्थ स्वरूप में दिखाता है वही सच्चा साधु माना जाता है :
"आतमज्ञानी श्रमण कहावे, बीजो द्रव्यत लिंगी रे; वस्तुगतें जे वस्तु प्रकासें, आनंदघन-गत संगी रे ।"
__ (स्तवन : 12, गाथा : 6) मध्यकालीन गुजराती साहित्य में धर्म के संदर्भ में जो जागरूकता और स्पष्ट कथन अखा में देखने को मिलते हैं, वैसी ही जागरूकता और स्पष्ट कथन आनंदघन में देखने को मिलते हैं । अखा घुमक्कड आदमी था तो आनंदघन विहार (भ्रमण करने वाले) साधु थे । अखा की वाणी में तीखी चोट का अनुभव होता हैं, तो आनंदघन की वाणी में गांभीर्य का अनुभव होता हैं । अखा ब्रह्मरस और ब्रह्मखुमारी (ब्रह्मानंद) का बयान करता है तो आनंदघन आत्मज्ञान और अनुभवलाली का रंग जमाता है । इन दोनो में कोई भी केवल कोरा शुष्कज्ञानी नहीं है ।
'ब्रह्मरस' की गहन अनुभूति को व्यवहारिक जीवन के दृष्टांतो से अभिव्यक्त किया है । उसकी वाणी में वास्तविक जिंदगी से उपलब्ध उपमाओं की आतिशबाजी है, जबकि आनंदघन में वास्तविक जिंदगी की उपमाएँ या दृष्टांत प्रासंगिक हैं ।
आनंदघन में विशेष काव्यत्व है और उसका झुकाव रहस्यवाद की ओर है । अखा रहस्यवादी नहीं है परंतु तत्त्वज्ञानी है । अखा ने अपने काव्यों में वेदांत का तत्त्वज्ञान आलेखित किया है, जबकि आनंदघनजी ने जैन सम्प्रदाय की परिभाषा में ज्ञानबोध दिया है । आनंदघन में मस्ती वह स्थायीभाव है, जबकि अखा में मस्ती की झलकभर देखने को मिलती है। आनंदघन आत्मसाधना में मस्त योगी थे अत: सामाजिक सुधार के विषय में उनके काव्य में कुछ नहीं मिलता । अखा समाज और सामाजिक सुधार की ओर विशेष ध्यान रखता है । इसी कारण से उसकी वाणी में विशेष तीखापन दीखता है । अखा की भाषा रुक्ष और प्रहारात्मक है जबकि आनंदघन की भाषा उपेक्षाकृत मृदुल है । अखा में हास्य का प्रमाण भी अधिक देखने को मिलता है । आनंदघन में हास्य शायद ही दिखाई दे । इन दोनों सर्जकों ने पद के फलस्वरूप में उच्च आध्यात्मिक अनुभव डाला है । लेकिन अखा वेदांत की परिपाटी पर अध्यात्म अनुभव का आनंद व्यक्त करता है जबकि आनंदघन में कबीर और मीरां की तरह सहजभाव ही अध्यात्म - उपदेश देखने को मिलता है।
एक ही समय के फलक पर इस तरह से दो भिन्न प्रदेशों के ज्ञानी, अज्ञानी समाज को अपनी ज्ञानपूर्ण अनुभववाणी से प्रहार करके जागृत करने का प्रयत्न
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