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आनंदघन: कबीर, मीरा और अखा के परिप्रेक्ष्य में : 71 करते हैं । मस्त साधकों की एक तरह से समाजलक्षी परमार्थ प्रवृत्ति थी।
5.
टिप्पण 1. 'सन्त साहित्य और साधना', ले. भुवनेश्वर मिश्र माधव, प्रका : नेशनल
पब्लिशिंग हाउस, दिल्ही, ई. स. 1966, पृ. 13 'श्री आनंदघनजीनां पदो', भाग-२, ले. मोतीचंद कापड़िया, प्रकाशक : श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई, ई. स. 1956, पृ. 45
वही, पद 100, पृ. 432 4. वही, पृ. 138
'अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद', ले. डॉ. वासुदेवसिंह, प्रका :
समकालीन प्रकाशन, वाराणसी, ई. स. 1965, पृ. 110 6. 'श्री आनंदघनजीनां पदो', भाग-२, ले. मोतीचंद कापड़िया, प्रकाशक : श्री
महावीर जैन विद्यालय, मुंबई, ई. स. 1956,वही, पृ. *278) 7. वही, पृ. 499 8. वही, पृ. 440 9. वही, पृ. 976 10. मीरांना पदो, भूपेन्द्र बालकृष्ण त्रिवेदी, प्रका : एन. एम. त्रिपाठी प्रा. ली.
मुंबई, 1962, पृ. 164-165 11. 'श्री आनंदघनजीनां पदो', भाग-२, ले. मोतीचंद कापड़िया, प्रकाशक : श्री
महावीर जैन विद्यालय, मुंबई, ई. स. 1956, पृ. 396 12. वही, पृ. 394 13. वही, पृ. 926 14. वही, पृ. 249
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