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आनंदघन कबीर, मीरा और अखा के परिप्रेक्ष्य में : 69 "भूत चतुष्क वरजी आतमतत्त, ।
सता अभगी न घटे, अंध शकट जो निजर न निरखो
तो सु कीजे शकटै ।"
(स्तवन : 20, गाथा : 6) उस समय सभी संप्रदाय तर्क-वितर्क में डूबे हुए थे । अपना ही मत सर्वश्रेष्ठ है इसकी स्थापना के लिए पक्षपात और तर्कबाजी चलती थी । अपने मत का ऐसा जुनून ऐसे योगियों और ज्ञानियों को कहाँ से पसंद आये ? मतमतांतर की इस लड़ाई में जिद का ही महत्त्व था । अत: ज्ञानी अखा ने और योगी आनंदघन अहर्निश अपनी शक्ति व्यर्थ में व्यय करने वालों पर सख्त नाराजगी व्यक्त की है । सच्चे धर्म को जाने बगैर अंधेरे कुएँ में झगड़ते हुए लोगों जैसे ये मतवादी अखा को प्रतीत हैं :
"खटदर्शन ना जूजवा मता मांहोमांहे तेणे खाधी खता । एक नुं थाप्युं बीजो हणे, अन्यथी आपने अधिको गणे, अखा ए अँधारो कूवो, झघड़ो भागी कोई न मूओ ।"
अखा खटदर्शन के जूजवा मत की जिद की आलोचना करते हैं, जबकि आनंदघनजी उस पर प्रहार करने के बदले इक्कीसवें 'श्री नेमिनाथ जिन स्तवन' में षड्दर्शन के छह मतों को जिनेश्वर के छह मतों को जिनेश्वर के छह अंगों के रूप में दिखाते हैं और इस तरह से उनकी व्यापक औदार्यपूर्ण समदृष्टि प्रकट होती है । वे भी अपने मत में मस्त रहनेवाले मनुष्यों की टीका करने वाले अखा की तरह कहते हैं
“मत मत भेंदे रे जो जे पूछीड़
सहू थापे अहमेव ।”
(स्तवन : 4, गाथा : 1) ये दोनों आलोचक दंभी और दंभ की आलोचना करते हैं । वे सच की कीमत खुद जानते हैं इसीलिए । आनंदघन भी अखा की तरह ठोककर कहते हैं : “गच्छना भेद बहु नयण निहाणतां
तत्त्व नी वात करतां न लाजे ।"
__ (स्तवन : 14, गाथा : 3) इस तरह से इन दोनों समकालीनों ने तत्कालीन समाज की रूढ़िवादिता और दंभ पर प्रहार किये हैं । उस प्रहार करने की रीति में दोनों के व्यक्तित्व की विशेषता अपने आप प्रकट होती है ।।
कहीं-कहीं तो अखा और आनंदघन एक जैसा ही उद्गार निकालते हैं। अखा कहते हैं कि केवल सच्चे गुरु के मिल जाने से बात समाप्त नहीं हो जाती । बैल को नाथ क्यों पहनाया जाता है ? उससे काम लेना आसान हो जाये इसलिए । इस दृष्टांत से अख्खा कहते हैं कि चित्त (मन) को भी नाथ (नथनी) पहनानी पड़ेगी । उसी मन को अंकुश में रखने की बात आनंदघन जी ने 'श्री कुंथु जिन स्तवन' में बड़े मजे के साथ कही है ।
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