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68 : आनंदघन अखा इस चैतन्य के विलास की मौज उड़ाते हुए कहते हैं - 'हुँ हसतो रमतो हरिमां भळ्यो ।' और उस परम जीवन की प्राप्ति के आनंद को गाते हुए अखा मानों किसी चमत्कार का वर्णन करता हो इस तरह कहता है:
"छींडु खोळता लाधी पोळ, हवे अखा कर झाकमझोळ ।"
इस तरह आनंद को आलेखित करते हुए अख्रा अपने पदों में गाता है कि “अभिनवो आनंद आज”, “आज आनंद मारा अंग मां ऊपज्यो”, “आज आनंदनां ओघ ऊलट्या घणां ।"
योगी आनंदघन का तो समग्र व्यक्तित्व आनंदमय हो गया है । अपनी आनंदावस्था का ज्ञान करते हुए कवि आनंदघन तो आनंदघन बनकर गाते हैं :
"मेरे प्रान आनंदघन, तान आनंदघन,
मात आनंदघन, तात आनंद धन, . गात आनंदघन, जात आनंदघन ।”
और यह अवस्था ऐसी है कि उसमें कहना और सुनना कुछ नहीं होता । यह तो अनुभव की चीज है । प्रेम का तीर जिसे लगे वही जाने । इसलिए आनंदघन कहते हैं कि यह 'अकथ कहानी' तो अनुभव से ही जानी जा सकती है :
अनुभव गौचर वस्तुकोरे, जाणवो यह इलाज, कहन सुनन को कछु नहीं प्यारे आनंदघन महाराज ।
अखा ने समाज की अज्ञानता, जड़ता और धर्मांधता पर 'छप्पय' के द्वारा प्रहार किया । समान की जड़ और निर्जीव रूढ़ियों का पालन करने की मनोवृत्ति और जड़ कर्मकांड में डूबे रहने के अज्ञान पर अट्टहास करते हुए अखा कहते हैं :
"तिलक करतां त्रेपन थयां, जप मालानां नाकां गयां, तीरथ फरी फरी थाक्या चरण, तोय न पोहोता हरिने शरण ।”
इसी जड़ता का विरोध योगी आनंदघन अखा की व्यंग्यपूर्ण वाणी के बदले एक कहावत प्रयुक्त करके कहते हैं :
"शुद्ध सरधान विण सर्व किरिआ सही,
छार पर लीपणो जाणो ।" (स्त. १४, गा. ५) इन दोनों संतों ने शून्यवाद और चार्वाकवाद का कड़ा विरोध किया है। अखा शून्यवाद का उपहास उड़ाते हुए कहते हैं :
“हवे शून्यवादी ने शून्ये शून्य, विश्व नहीं ने नहीं पाप पुन्य; उत्पत्य नहीं, ने नहीं समास, स्वापर नहीं, नहीं स्वामीदास;
एम घरते शून्यवादी खरो,
. पण अखा न चाले शून्य ऊफरो ।” योगी आनंदघन चार्वाकमत का खंडन करते हुए स्तवनों में गंभीरता से कहते
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