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आनंदघन: कबीर, मीरा और अखा के परिप्रेक्ष्य में : 67 "श्रुत अनुसार विचारी बोलुं सुगुरु तथा विध न मिलई रे ।”
(स्तवन : 21, गाथा : 10) सच्चिदानंद पाने के लिए गुरु की खोज तो बहुत की लेकिन कहीं भी सद्गुरु की प्राप्ति नहीं हुई । कहीं दंभ देखा तो कहीं जड़ता । कहीं एकांत आग्रह की जिद पाई तो कहीं बाह्याडम्बर पाया । पारसमणि की तलाश की, लेकिन हर कहीं पत्थर पाया । सच्चे ज्ञान की लगन थी तभी मालूम हुआ कि सच्चा गुरु किसी मंदिर की दीवारों में, तर्क से पूर्ण ग्रंथों में या किसी भी प्रकार के क्रियाकांडों में नहीं बसा है । इन्सान का सच्चा गुरु उसकी आत्मा है, आध्यात्मिक अनुभूति की चरमसीमा तक पहुँचने के लिए एकलवीर की तरह प्रयाण करने के लिए दृढ़ता की आवश्यकता होती है । इस चरमभूमिका (चरमकक्षा) पर कोई गुरु या बाह्याडंबर व्यर्थ साबित होते हैं । आत्मा को स्वयं अपने ही प्रयासों से आत्मप्रतीति प्राप्त करनी होती है । जब स्वयं ही अपने आत्मस्वरूप को ढूंढ़ निकालती है तब अंतरात्मा को कितना आनंद होता है | अखा कहता है :
“गुरु था तारो तुं ज, जूजवो को नथी भजवा । हुँ ए हुं काढ्यो खोळी, भाई रे, हुँ ए हुँ काढ्यो खोळी ।"
(तुम अपने ही गुरु बनो । दूसरे किसी को भजने की आवश्यकता नहीं है । हे भाई मैंने यह सिद्धान्त ढूंढ निकाला, मैंने यह सिद्धांत ढूँढ निकाला ।)
अखा की मस्ती इस पद में कितने लय में व्यक्त हुई है ? वही मस्ती आनंदघन के पदों में उतने ही गूढ़ ढंग से व्यक्त हुई है । जब आत्मस्वरूप में परमात्मभाव का अनुभव होता है, तब परमात्मस्वरूप प्राप्त आत्मा कितनी विरल मधुर दशा को प्राप्त होती है । आनंदघन सोलहवें 'श्री शांति जिन स्तवन' में ऐसी विलक्षण आत्मप्रतीति को अखा जैसे ही लहजे में कहते हैं : “अहो हुं अहो हुं मुझ ने कहुं, नमो मुझ नमो मुझ रे ।”
(स्तवन : 16, गाथा : 13) आत्मसाक्षात्कार के बाद हृदय की धरती कैसे निराले रुप में सात्त्विक प्रभाव महकाती है । अज्ञान की कालरात्रि बीत चुकी हैं और ज्ञान के प्रकाश से हृदय जगमगा उठता है । उस उल्लासपूर्ण आत्मदर्शन का वर्णन करते हुए आनंदघनजी एक पद में कहते हैं :
"सुहागन ! जागी अनुभव प्रीत । निन्द अनादि अज्ञान की, मिट गई निज रीत । (1) घट मंदिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप;
आप पराई आप ही, ढानप वस्तु अनूप ।” (2) हृदयमंदिर में सहज़ रूप से प्रकाशरूपी दीपक प्रकट हुआ है; अतएव अनादिकाल के अज्ञान की निद्रा दूर हुई है । आनंदघन ने एक दूसरे पद में 'मेरे घट ज्ञान भानु भयो भोर' का गान किया है हृदय में ज्ञान रूप सूर्य के उदय होने पर उदित प्रभात की बात यहाँ है ।
परमतत्त्व की प्राप्ति का आनंद अखा ने अपने पदों में भरपूर व्यक्त किया है ।
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