________________
66 : आनंदघन भक्ति अखा की तरह है। उसमें ज्ञान के अनुषंग में आनेवाली भक्ति देखने को मिलती है । ज्ञान जब उच्च कोटि पर पहुँचता है तब अपने आप दर्शन होते हैं यह मीरां में दिखता है । आनंदघन की भक्ति तत्त्वज्ञान के अनुषंग से होनेवाली भक्ति है । इसलिए उनके रूपकों में रहस्यवाद देखने को मिलता है । इसके बावजूद मीरां जितनी तदाकारता और सचोटता आनंदघन अपने पदों में ला सके हैं यह पद रचनाकार के रूप में उनकी विशिष्ट सिद्धि मानी जा सकती है । पद के स्वरूप में मीरां ने भक्ति और आनंद की मस्ती लुटायी है। दोनों संत कवियों ने इन पदों में अपने आत्म अनुभव का बयान करने के साथ-साथ पद-साहित्य में अविस्मरणीय स्थान प्राप्त किये हैं। अखा और आनंदघन
'अक्षयरस' बहाता हुआ अखा और 'अनुभवलाली' की मस्ती का गान करते हुए आनंदघन समकालीन तो थे ही लेकिन उससे भी ज्यादा दोनों में तत्कालीन परिस्थितियों पर प्रहार करने की क्षमता, धर्मांधता का विरोध और सत्य पिपासा की आरत का साम्य देखने को मिलता है ।।
___ आनंदघनजी के वैराग्य भाव को व्यक्त करती हुई लोककथाएँ प्राप्त होती हैं । इसी तरह से अखा के संसार त्याग को व्यक्त करती हुई भिन्न-भिन्न कथाएँ मिलती हैं । आनंदघनजी ने जिस तरह से मेड़ता में उपाश्रय का त्याग किया उसी तरह से अखा को भी सुनार के पेशे से नफरत हो जाने से औजार कुएँ में डाल दिए, ऐसी कथा प्रचलित है । दोनों संतों ने सत्य प्राप्ति के लिए सतत प्रयास किये हैं । सच्चे गुरु की खोज में दोनों संत बहुत घूमे हैं, आनंदघनजी को सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हुई । उनको तो दिव्य नेनों से वस्तु-तत्त्व का चिंतन करने वालों का 'विरह पड्यो निराधार' लगता है । अब्रा को भी कहीं ऐसे सच्चे गुरु की प्राप्ति नहीं हुई इसलिए वे कहते हैं:
"गुरु कीधा में गोकुलनाथ, घरडा बड़द ने घाली नाथ; धन हरे, धोखो नव हरे, ऐवो गुरु कल्याण शुं करे ? पोते हरि ने न जाणे लेश, अने काढ़ी बेठो गुरुनो वेश, ज्यम सापने घेर परोणो साप, मुख चाटी वळ्यो घेर आप एवा गुरु घणां संसार, ते अखा शुं मूके भवपार ? प्राप्त राम करे ते गुरु, बीजा गुरु ते लाग्या वरु, धन हरे, धोख नव हरे, संबंध संसारी साचो करे ।" (जो राम (इष्टदेव) की प्राप्ति करावे या करें वही गुरु होता है । दूसरे गुरु तो लोमड़ी जैसे हैं । वे धन का अपहरण करते हैं । आपत्ति को दूर नहीं करता है
और संसार के (स्वार्थी) सम्बन्धों को चरितार्थ करता है ।)
अखा दंभी गुरुओं पर कटु वाणी के कोड़े बरसाता है, तो योगी आनंदघन सच्चे गुरु की प्राप्ति न होने पर स्तवनों में गहरा विषाद प्रकट करते हैं : “आगमवादे हो गुरुगम को नहीं, ए सबलो विखवाद ।”
(स्तवन : 4, गाथा : 3)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org