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60 : आनंदघन निरूपण, संकुचितता के स्थान पर व्यापक भावनाओं की उज्ज्वलता - इन सबको देखते हुए इन पदों में अनुभवार्थी बैरागी कवि आनंदघन.की सर्वोच्च अवस्था का प्रकटीकरण हुआ है। कवि ने 'अनुभवलाली' के आत्मसाक्षात्कार से 'अगम पियालो' पिया है और परमतत्त्व में लीन होकर अमरत्व के अनुभव की मस्ती का आनंद लिया है, और उसे गाया भी है। मीरां और आनंदघन
__ मीरां और आनंदघन के पद साहित्य में प्रभु-मिलन की तीव्र छटपटाहट और उच्च आध्यात्मिक जीवन के संस्कार प्रकटित होते हैं । मीरां की कृष्णभक्ति का जन्म जीवन की किसी आघातजनक घटना से यकायक नहीं हुआ है, उसी तरह आनंदघन की वैराग्यवृत्ति का प्रादुर्भाव भी किसी सांसारिक घटना की चोट से नहीं हुआ है । इन संतों के जन्मजात संस्कारों में ही वैराग्य के बीज पड़े हुए होते हैं, जिनका समय के साथ-साथ विकास होता है ।
मीरां और आनंदघन के संदर्भ में एक साम्य लक्षित होता है । मेड़ता की भूमि पर मीरां का जन्म हुआ और लगभग सवा सौ साल के बाद उसी भूमि पर आनंदघन ने भ्रमण किया होगा । जिस स्थान पर मीरां की प्रेमलक्षणा भक्ति का सोता स्वयंभू फूटा, वही भूमि आनंदघन की कर्मभूमि बनी ।
इन दोनों संतों के पद स्वयं स्फुटित हैं । कहीं भी ये सायास नहीं प्रतीत होते । मीरां ने भक्ति और आनंदघन ने योग के रहस्य को आत्मसात् किया है । और उसके बाद दोनों ने मन के गूढतम भावों को प्रेरणादायी उत्साह से भाववाही वाणी में अभिव्यक्त किया है या यूं कहें कि वे अभिव्यक्त हो गये हैं, तो अधिक उपयुक्त होगा।
मीरां के लिए जिस तरह कृष्णभक्ति स्वाभाविक थी, उसी तरह से आनंदघनजी के लिए योग; वह किसी चर्चा या अध्ययन का नहीं, बल्कि अनुभव में रचा बसा विषय था । इसीलिए वे योग और आध्यात्मिक तत्त्वों को रसिक और उत्कट वाणी में अपनी कविता में निरूपित कर पाये । मीरां की तरह आनंदघन के पदों में अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों की वेधकता प्रतीत होती है । विरहिणी मीरां ने पियामिलन के लिए तड़पते, अकुलाते, छटपटाते हुए वियोग के आँसू बहाये हैं । मीरां का विरहगान मीरां का ही है, उसका कोई सानी नहीं है । मीरां के पदों में प्रेमाकुल विरहिणी की वेदनापूर्ण चीख है । प्रेम की वेदी पर सर्वस्व समर्पण कर चुकी नारी की भाँति कृष्णविरह की वेदना को व्यक्त करती हैं ।
“मैं विरहिणी बैठी जागू, जगत सब सोवे री आली...."
विरह की इस पीड़ा को आनंदघनजी ने भी इतनी ही तीव्रता और उत्कटता से व्यक्त किया है । मीरां जहाँ 'गिरधर नागर' के लिए तरसती हैं, वहीं आनंदघन अपने 'मनमेलु' का इन्तजार करते हुए सोचते हैं :
"मुने मारो कब मिलशे मनमेलु, मनमेलु विण केलि न कलीए, वाले कवल कोई वेलु"6 मन के मिलाप के बिना का खेल किसी मूर्ख के द्वारा रेत के निवाले बनाने
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