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आनंदघन: कबीर, मीरा और अखा के परिप्रेक्ष्य में : 61 जैसा है | आनंदघन तो कहते हैं कि जो मनुष्य इस मिलाप के साथ अंतर बनाये रखता है, वह इन्सान नहीं, पत्थर है । 'मनमेल' से मिलने की छटपटाहट इतनी अधिक है कि मीरां ने जैसे लोकलाज छोड़ दी थी, उसी तरह आनंदघन भी पति को पाने के लिए बड़े-बूढ़ों की मर्यादा छोड़कर दरवाजे पर खड़े-खड़े उसकी राह देखते हैं उसके बिना तड़पते हैं, बिलखते हैं । आँखें उसी राह पर बिछी रहती हैं, जिस पर से पति आनेवाले हैं । शरीर के वस्त्राभूषण उन्हें जरा भी नहीं सुहाते । कीमती आभूषण जहर जैसे लगते हैं । अंतर की इस तपन को कोई वैद्य मिटा सके ऐसा नहीं है । एक श्वासोच्छ्वास की अवधि जितना भी सास मेरा विश्वास नहीं करती और निर्लज्ज तृष्णा - ननद सुबह से लड़ती-झगड़ती रहती है तन की इस वेदना को तो तभी शांति मिलेगी जब आनंदघन की अमृतवर्षा हो ।
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" सास विसास उसास न राखें ननदी नी गोरी भोरी लरीरी
और तबीब न उपति बुझावे
आनंदघन पीयुब झरीरी । "7
पहले दूसरों की विरह वेदना का वह उपहास करती थी, लेकिन जब खुद विरह वेदना के बाणों से घायल हुई तो जाना कि इसकी पीड़ा कितनी मर्मान्तक होती है। पूरे शरीर में शूल की सी चुभन होती है । मन तो इस विरह से लगातार मचलता रहता है । इस विदारक अनुभव के बाद ही मैं सभी को कहती हूँ कि कोई प्रीत न करना ।
मन छीज्यो हो;
" हंसती तब हूँ विरानिया, देखी तन समजी तब एती कही, कोई नेह न
कीज्यो हो ।”
मीरां के जैसी भाव - दीप्ति और व्यथा की चोट आनंदघन के इन पदों में दिखाई देती है । होली तो फाल्गुन महीने में आती है पर कवि आनंदघन कहते हैं कि यहाँ तो निसदिन अन्तर्मन में वेदना की होली जलती रहती है और वह इस शरीर को राख बनाकर उड़ा देती है । इस तीव्रतम वेदना को निरूपित करने के लिए कवि आनंदघन ने इन निम्नलिखित पंक्तियों में कैसी सुन्दर कल्पना के द्वारा विरह को मूर्तिमंत रूप दे दिया है ?
“फागुण आचर एक निसा, होरी सीरगानी हो; मेरे मन सब दिन जरै, तन खाख उड़ानी हो । ” 8 यह विरह सुमति का विरह है । अपने चेतनजी के लिए वह तरसती है । सुमति अपने अनुभव मित्र को अपनी यह विरह वेदना बताती है । चातक जिस तरह पीउ - पीउ रटता है वैसे ही वह पति का रटन लगाये रहती है । उसका जीव पति के प्रेम रस पीने का प्यासा है । मन और तन दोनों ही पति के इन्तज़ार में अस्वस्थ हो गये हैं और उस वियोगावस्था को आनंदघन अनुपम कल्पना लीला के द्वारा आलेखित करते हुए कहते हैं :
“निस अंधियारी मोंही हसे रे, तारे दाँत दिखाई, भादु कादु में कियो प्यारे, असुवन धार बहाई । "
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